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________________ परिणापा पर विचार किया है। बनारसेस का कहना है कि रहस्यपार सिर को समझाने का प्रमुख साधन है। इसे हम स्वसंवेच भान कह सकते है बो तर्क पौर विश्लेषण से भिन्न होता है। फ्लीटर रहस्यवाद को पाना मौर परमात्मा के एकत्व की प्रतीति मानते हैं। प्रिमिस पेटीशन के अनुसार रहस्यवादी प्रवीति परम सत्य के पास करने के प्रपन में होती है। इससे मानन्द की उपलब्णि होती है। दुधि द्वारा परम सत्य को ग्रहण करना उसका दार्शनिक पक्ष है और ईबर के साप मिसन का बामन्व-उपयोग करना उसका धार्मिक पक्ष है वर एक स्कूल पदार्थ न रहकर एक अनुभव हो जाता है। यहां रहस्यवाद भनुभूति के मान की उच्चतम अवस्था मानी गयी है । पाषुनिक भारतीय विद्वानों ने भी रहस्यवाद की परिभाषा पर मंचन किया है। रामचन्द्र शुक्ल के शम्दों में 'मान के क्षेत्र में जिसे प्रत-बाप कहते है भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद कहलाता है। ग. रामकुमार वर्मा ने हस्यवाद की परिभाषा की है-"रहस्यवाद जीवात्मा की उस मन्तहित प्रवृत्ति का प्रकासन है जिसमें वह दिव्य पार पलौकिक शक्ति से अपना शांत और निश्चल सम्बन्य मोड़ना चाहती है। यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी मन्तर नहीं रह जाता।" पौर भी अन्य प्राधुनिक विद्वानों ने रहस्यवाद की परिभाषाएं की है । उन परिभाषामों के माधार पर रहस्यवाद की सामान्य विधेषताएं इस प्रकार कही जा सकती/ 1.मात्मा पौर परमात्मा में ऐक्य की अनुभूति । 2. तावालय। 3. विरह-भावना। 4. भक्ति, शान और योग की समम्बित सामना । । 5. सदगुरु बार उनका सत्संग । प्रायः ये सभी विशेषताएं वैदिक संस्कृति और साहित्य में अधिक मिमतीहैं। मेन स्वाद मूलतः इन विशेषताओं से कुछ थोड़ा भिन्न था । उक्त परिभाषामों सार्थक वर के प्रति पात्मसमर्पित हो जाता है। पर जैन धर्म ने ईश्वर का 1.' Mysticism and Logic, Page 6-17 2. Mysticism in Religion, P25 ३. पक्तिकाम्य में स्मार-डॉ. रामनारायण पाय, पृ. 6
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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