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________________ 82 में प्राप्त योगी की मूर्तियों में भी देखा जा सकता है, परन्तु जब तक उसकी लिपि का परिज्ञान नहीं होता, इस सन्दर्भ में निश्चित नहीं का जा सकता। मुंडकोपनिषद् के ये शब्द चितन की भूमिका पर बार-बार उतरते हैं जहां पर कहा गया है कि ब्रह्म नेत्रों से, न वचनों से, न तप से प्रौर न कर्म से गृहीत होता है । विशुद्ध प्राणी उस ब्रह्म को शान प्रसाद से साक्षात्कार करते हैं--- नाते, नापि वाचा मान्यैर्देवंस्तपसा कर्मणा वा । ज्ञान- प्रसादेन विशुद्ध सत्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कले ध्यायमानः ॥ रहस्यवाद का यह सूत्र पालि-त्रिपिटक मौर प्राचीन जैनागमों में भी उपलब्ध होता है । मज्झिमनिकाय का वह सन्दर्भ जैन - रहस्यवाद की प्राचीनता की दृष्टि से त्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें कहा गया है कि निगण्ठ अपने पूर्व कर्मों की निर्जरा तप के माध्यम से कर रहे हैं। इस सन्दर्भ से स्पष्ट है कि जैन सिद्धांत में आत्मा के fiya रूप को प्राप्त करने का प्रथक प्रयत्न किया जाता था। ब्रह्म जालसुत में प्रपयन्तट्ठि के प्रसंग में भगवान बुद्ध ने भ्रात्मा को भरूपी भौर नित्य स्वीकार किये जाने के सिद्धांत का उल्लेख किया है। इसी सुख में जैन सिद्धांत की दृष्टि में रहस्य बाद व अनेकान्तवाद का भी पता चलता है । रहस्मवाद के इस स्वरूप को किसी ने गुह्य माना और किसी ने स्वसवेद्य स्वीकार किया । जैन संस्कृति में मूलतः इसका " स्वसंवेद्य" रूप मिलता है जब कि जैनेतर संस्कृति में गृह्म रूप का प्राचुर्य देखा जाता है। जैन सिद्धांत का हर कोना स्वयं की अनुभूति से भरा है उसका हर पृष्ठ निजानुभव और चिदानन्द चैतन्यमय रस से आप्लावित है। अनुभूति के बाद वर्क का भी अपलाप नहीं किया गया बल्कि उसे एक विशुद्ध चितन के धरातल पर खडा कर दिया गया | भारतीय दर्शन के लिए तर्क का यह विशिष्ट स्थान निर्धारण जैन संस्कृति का अनन्य योगदान है । रहस्य भावना का क्षेत्र असीम है । उस ममन्तशक्ति के लोत को खोजना मक्ति के सामयं के बाहर है। मतः असीमता भौर परम विशुद्धता तक पहुंच जावा था विवाद- तन्यरस का पान करना साधक का मूल उद्देश्य रहता है। इसलिए रहस्यवाद किंवा दर्शन का प्रस्थान बिन्दु संसार है जहां प्रात्यक्षिक और प्रात्यक्षिक सुख-दु:ख का अनुभव होता है और साधक चरम लक्ष्य रूप परम विशुद्ध 'अवस्था को प्राप्त करता है। वहां पहुंचकर वह कृतकृत्य हो जाता है मीर अपना भवचक्र समाप्त कर लेता है। इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग ही रहस्य बना हुआ है। एक रहस्य को समझने धौर धनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्वों को घाधार बनाया जा सकता है। --
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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