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________________ ' गि संस्कृति में समस्त तथा प्रांत मध्य लोक का नामान्तरण जिसे सो क्षेत्रों में विमत किया गया है। इसके सारे संबों को रखने की यहां मावश्यकता नहीं है पर इतना अवश्य है कि पर्मत, नदी, मगर मादि की जो स्थितिवां करणानुयोग में परिणत हैं उन्हें माधुनिक भूगील के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयत्न किया जाये बाहरण के तौर पर बूद्वीप को यूरेशिकार से यदि पहिचाना जाय तो सायव उसकी अवस्थिति किसी सीमा सक स्वीकार की जा सकती है। इसी वरह सुमेह को पामेर की पर्गत अगयों के साथ रखा जा सकता है। हिमवान को हिमालय, निषष को हिन्दुकुम, नील को मलाई नाम, शिखरी को सामान से मिलाया जा सकता है। रम्यक को मध्य एशिया या दक्षिणी-पश्चिमी सीमाम, हैरण्यवत को उत्तरी सीमांग, उत्तर कुरु को स तथा साइबेरिया से तुलना की जाये तो संभव है हम इन स्थलों की पहिचान कर सकते है। इसी प्रकार और स्थलों की भी तुलना करना उपयोगी होमा । इस प्रकार जैन भूगोल को माषुनिक भूमोल के व्यावहारिक पक्ष के साप रखकर हम यह निर्ष निकालना चाहते है कि जैन भूमोल का समूचा पक्ष कोरा बकवास नहीं हैं उनके पारिभाषिक शब्दों को प्राधुनिक संदों के साय यति मिला. कर समझने की कोशिश की जाय तो संभव है कि हम काफी सीमा कोलिक परम्परा को मालसात् कर सकेंगे। जैन भूगोल के साथ सर्वमता को नहीं जोड़ा जाना चाहिए । समता का सम्बन्ध पारमा पौर परमात्मा के साथ अधिक उचित प्रतीत होता है। इसका तात्पर्य यहा नहीं कि सर्वम को विमोक से कोई लेना-देना नहीं रहा । जैन मो-पायों ने पर लोक का वर्णन करते समय त्रिलोक का विस्तृत वरपेन किया है। इतना ही नहीं, मोकाकाश के प्रतिरिक्त पलोकाकाथ का भी विवेचन प्रस्तुत किया है जो मानके वैज्ञानिक जगत में सही-सा उतर रहा है । सूर्य , पन्द्र, ग्रह, नक्षव प्रादि का जो भी मालेसन'बैन साहित्य में हुपा है वह मान भी लगभग बरा सिद्ध हो रहा है। पुष बातें प्रवश्य ऐसी सामने पा रही है जो मूलतः गलत लगने लगी है-पाव के वैज्ञानिक खोष के संदर्भ में 1वी पाली के प्राकार जैसी चपटी है, सूर्य उसका परिमाण करता है भादि जैसे कुछ मुद्दों ने जैन भूगोल को ही नहीं, बल्कि बौन, वैदिक, किरियम न पारि मन्य पदों की मान्यतामों को भी मार दिया है । इससे ऐसा प्रयता है कि प्राचार्यों ने अपने समय में प्रचलित कुछ नौगोलिक मान्यताओं को परि वन-परिपन के साथ क्या लिया । यही कारण है कि तीनों-सरों सवियों में कतिपय वस्खों का विवेचन मममम समान उपसम्म होता है। इसी तरह इहलोक का वहन करते समय बैनाचार्यों ने मनसोक का विस्तृत वर्णन किया है। इस प्रसंग में उन्होंने पर्वों, नदियों, नपरों को भी साव पिरा है
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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