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________________ 1 52 जैन मध्यमों को छोड़कर शेष प्राकृत साहित्य का उपयोग नहीं किया गया, और दूसरी बात यह है कि यह मात्र उद्धरणकोश बन गया । ये उद्धरण इतने लम्बे रख दिये कि पाठक देखकर ही पकड़ा जाता है। कहीं-कहीं तो ग्रन्थों के समूचे भाग प्रस्तुत कर दिये हैं। फिर इसके बाद उनका संस्कृत रूपान्तर मौर भी बोकिल बन पायसमष्णव के लेखक पं. हरगोविन्द दास सेठ ने इसकी जो सटीक ग्रामोक्ता की है वह इस सन्दर्भ में दृष्टव्य है । थोड़े गौर से देखने पर भाषामों का पर्याप्त " परन्तु वेद के साथ कहना पड़ता है कि इसमें कर्ता की सफलता की अपेक्षा forseeता ही afts मिली है और प्रकाशक के धन का अपव्यय ही विशेष हमा है । सफलता न मिलने का कारण भी स्पष्ट है। इस ग्रंथ को यह सहज ही मालूम होता है कि इसके कर्ता को न तो प्राकृत शान था और न प्राकृत शब्दकोश के निर्माण की उतनी प्रबल इच्छा, जितनी जैन दर्शन शास्त्र और तर्क शास्त्र के विषय में अपने पांडित्य प्रस्यापन की धुन । इसी धुन से अपने परिश्रम का योग दिशा में ले जाने वाली विवेक बुद्धि का भी हास कर दिया है। वही कारण है कि इस कोश का निर्मारण केवल 75 से भी कम प्राकृत जैन पुस्तकों के ही, जिनमें अर्धमागधी के दर्शन विषयक ग्रंथों की बहुलता है, माघार पर किया गया है मोर प्राकृत की ही इतर मुख्य शाखाभों के तथा विभिन्न विषयों के अनेक जैन तथा जैनेतर ग्रंथों में एक का भी उपयोग नहीं किया गया है। इससे यह कोच व्यापक न होकर प्राकृत भाषा का एकदेशीय कोश हो गया है। इसके सिवा प्राकृत तथा संस्कृत ग्रंथों के विस्तृत प्रशों को मौर कहीं-कहीं तो छोटे बड़े सम्पूर्ण ग्रंथ को ही अवतरण के रूप में उद्धृत करने के कारण पृष्ठ संख्या में बहुत बडा होने पर भी, शब्द संख्या में कम ही नहीं, बल्कि प्राधारभूत ग्रंथों में पाये हुए कई augh शब्दों को छोड़ देने से धौर विशेषार्थहीन प्रतिदीर्घ सामासिक शब्दों की भर्ती से वास्तविक शब्द संख्या में यह कोश प्रति न्यून भी है। इतना ही नहीं, इस कोक में प्रादर्श पुस्तकों की, असावधानी की, धौर प्रेस की तो प्रसंख्य दिया है ही, माकृत भाषा के प्रज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली मूलों की भी कमी नहीं है और सबसे बढ़कर दोष इस कोष में यह है कि वाचस्पत्य, अनेकान्त जय पताका, अष्टक, renteredfeet प्रादि केवल संस्कृत के और जैन इतिहास जैसे केवल सामूनिक पुजराती ग्यों के संस्कृत मौर गुजरात शब्दों पर से कोरी निजी कल्पना से ही जगाये हुए प्राकृत बच्चों की इसमें खूब मिलावट की गयी है, जिससे इस कोश की 1. जैसे 'वेद' शब्द की व्याख्या में प्रतिमा-शतक नामक सटीक संस्कृत पंच को धादि से प्रांत तक उबूत किया गया है। इस ग्रंथ की पांच हजार है। करीब
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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