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________________ 46 मोर चार डीपक और चार कलश रख दिये। रात्रि में अपने साथ से राजा कनकप्रभ ने उसे देखा और सब कुछ समझकर वहीं उससे विवाह fear मीर एक रात सहवास भी किया। बाद में अपना परिचय देकर वापिस चला और पुनः पाकर उant समूची व्यवस्था कर दी (2.3 ) । इधर तिलकमती की सौतेली माता ने उसके चरित्र पर दोबारोपण किया और किसी चोर से उसे विवाहित बताया। इसी बीच जिनदत मा पहुंचे। तिखकमती की परीक्षा के निमित्त राजा ने भोजन का आयोजन किया और उसमें अपने पति को पहचानने का तिलकमती को प्रादेश दिया । पद प्रक्षालन के माध्यम से freeमती ने अपनी बन्द प्रांतों से कनकप्रभ राजा को अपने पति रूप में पहचान लिया मीर कहा-यही वह चोर है जिसने मुझसे विवाह किया है, अन्य कोई नहीं "इहू चोरु वि जे हऊ परिणियाय, उ प्रण्णु होइ इम अपिवाच" (2.5) इसके बाद प्रायोजन समाप्त हुआ मोर नव दम्पत्ति को जिन मन्दिर दर्शनार्थ ले जाया गया । वहां मुनि दर्शन हुए जो उन्हें उनके पूर्व भवान्तरों का स्मरण करा रहे थे । इस कथा मे सुगन्षदशमी व्रन के पालन की प्रक्रिया इस प्रकार दी हुई है । भाद्रपद शुक्ल पंचमी के दिन उपवास करना चाहिए पौर उस दिन से प्रारम्भ कर पांच दिन अर्थात् भाद्रपद शुक्ल नवमी तक कुसुमांजलि चढ़ाना चाहिए। कुसुमांजलि में फलस, बीजपुर, फोफल, कूष्माण्ड, नारियल मादि नाना फलों तथा पंचरंगी और सुगन्धी फूलों तथा महकते हुए उत्तम दीप, धूप श्रादि से खूब महोत्सव के साथ भगवान का पूजन किया जाता है । इस प्रकार पांच दिन नवमी तक पुष्पाजलि लेकर फिर दशमी के दिन जिन मन्दिर में सुगन्ध द्रव्यों द्वारा सुगन्ध करना चाहिए श्रीर उस दिन माहार का भी नियम करना चाहिए। उस दिन या तो प्रोसथ करे, और यदि सर्व प्रकार के बहार का परित्याग रूप पूर्ण उपवास न किया जा सके, तो एक बार मात्र भोजन का नियम तो अवश्य पाले । रात्रि को चौबीस जिन भगवान का प्रभिषेक करके दश बार दश पूजन करना चाहिए। एक दशमुख कलश की स्थापना करके उसमें दशांगी रूप लेना चाहिए। कुंकुम भादि दश द्रभ्यों सहित जिन भगवान की पवित्र पूजा स्तुति करना चाहिए । पुनः प्रक्षतों द्वारा वश भागों में नाना रंगों से fafer सूर्य मण्डल बनाना चाहिए उस मण्डल के दश भागो मे दश दीप स्थापित करके उसमे दश मनोहर फल और दश प्रकार नवेद्य चढ़ाते हुए दक्ष बार जिन भगवान की स्तुति वन्दना करना चाहिए। इस प्रकार की विधि हर्ष पूर्वक मन वचन काय से पांचों इन्द्रियों की एकाग्रता सहित प्रति वर्ष करते हुए दश वर्ष तक करना wife (1.11) इस व्रत की उद्यापन विधि इस प्रकार की हुई है। जगत की fafe पूर्वक पालन करते हुए दश वर्ष हो जायें तब उस प्रत का उद्यापन करना चाहिए। मन्दिर जी में जिन भगवान का अभिषेक पूजन करना चाहिए। समस्त
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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