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________________ 43" . बहसमर मट्टाक महाँचन्द्र के शिष्य थे। उनका काम लगभग 17 पीसीको अधि मिलित किया जा सकता है। उनके सीता हरण, निर्यात जिनसपना, मिल सूरि चौपई मादि अनेक अन्य उपलब्ध है। सीताहरण अन्य को बायोतात माने पर बह प्रष्ट हो जाता है कि कषि ने यहाँ विमल भूरि की परम्परा का अनुसरण किया है। काव्य को शायद मनोरंजन बनाने की दृष्टि से इधर-पर के खोटे मास्यानों को भी सम्मिलित कर दिया है। ढाल, दोहा, नोटक, गोपाई मादि बन्दों का प्रयोग किया है। हर प्राधिकार में बन्यो की विविधता है काम्बात्मक दृष्टि से इसमें लगभग सभी रसो कर प्राय है । कवि की काव्य कुशलता बर, बीर, प्रांत, प्रभुत, करुण प्रादि रसों के माध्यम से ममिल्यश्चित हुई है। बीच-बीच में कवि ने पनेक प्रचलित संस्कृत श्लोको को भी उपभूत किया है। भाषाविज्ञान की इष्टि से इस ग्रन्थ का अधिक महत्व है 'फोकट' बसे शब्दों का प्रयोग माकर्षक है। भाषा मे जहां यजस्थानी, मराठी, मोर गुजराती का प्रभाव है वही बुन्देलसपी बोली से भी कवि प्रभावित जान पड़ता है । मराठी और गुजराती की विमक्तियों का तो कवि ने मत्यन्त प्रयोग किया है। ऐसा लगता है कि ब्रह्मा जयसागर ने यह कृति ऐसे स्थान पर लिखी है जहा पर उन्हे चारो भाषामो से मिश्रित भाषा का मिला हो। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसका प्रकाशन उपयोगी जान परशा भाषा विज्ञान के अतिरिक्त मूल-कथा के पोषण के लिए प्रयुक्त विभिन्न माध्यानों का मालेखन भी इसकी एक भन्यतम विशेषता है। प्रवृत्ति जैन कथा साहित्य गैन साहित्य का एक विपुल भाग कथा मोर कोण साहित्य से भरा हमा है। जैन सिवान्तो की व्याख्या करना कथा साहित्य की मूल भूमिका रही है। मागम साहित्य से इन कथामो को लेकर उनमें लोकतत्व का पुट देकर जैनाचायों बड़े-बड़े कथा ग्रयों का निर्माण सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश हिन्दी प्रादि भाषामों में किया है। प्राकृत भाषा मे निबद्ध उपदेशमाला प्रकरण, धर्मपदेशमाला विवरण मापान मरिणकोथ, समराइच कहा, सिरिवाल कहा, कुवलयमाला, तरंग का पादि और तस्कृत भाषा में निवड बहल्कया कोण, कथाकोश, कथा महोदधिकबाकोश, पुण्याभवकथाकोश, धर्म परीक्षा, उपमिति भवप्रपच कथा, भविष्यात मादि सेकड़ो प्रय है जो भाषा, शैली प्रादि की दृष्टि से बड़े प्रभावक कहे जा सकते मी का मापार सेकर हिन्दी मे भी कया साहित्य का सृजन हमा है। यहां हम ऐसी कथामों में सुगंधदशमी कथा को उबाहरण के तौर पर प्रस्तुत कर रहे है जिसमें पील परतिको शव्यात्मिकता की ओर मोड़ने के लिए प्रा, भकिमान नया सामानकोला गया है।
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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