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________________ fe माराम्य का का करता है अधिक लीन हो जाता है। निज वर माये । पर घर ताप के साथ भक्ति के वश है और कह देते हैं कि प्राप संसार में भटक रहा हूँ । मिलता नहीं । और कुछ नहीं तो कम से कम राग द्वेष दीजिए दर्शन कर भक्तिवाद उनके समक्ष अपने पूर्वक क्रम जिससे उसका मन हल्का होकर मवि में और वे पश्वाचाप करते हुए हम तो कु नांब अनेक बराये' || पश्चादेते हुए कुछ मुखर हो उठते फिरत बहुत प्राराध्य दिन बीते उपालम्भ को स्वयं तो मुक्ति में जाकर बैठ गये पर मैं मम भी तुम्हारा नाम हमेशा में जपता हूँ तुम प्रभु कहियत दीन दवाल । प्रापन जाय मुकति में बैठे, हम षु वखत जग जान || तुमरी नाम जपं हम नीके, मनबच तीनों काल । तुम तो हमको कछु देत नहि, हमरो कौन हवाल || बुरे भले हम भगत तिहारे जानत हाँ हम बाल । और कछु नहि यह चाहत है, राम द्वेष को टाल || हम सौं चूक परो सौ वस्सो, तुम तो कृपा विशाल । धानत एक बार प्रभु जगतै, हमको लेहु निकाल ॥12 एक अन्यत्र स्थान पर कवि का उपालम्भ देखिये जिसमें वह उद्धार किये गये व्यक्तियों का नाम गिनाता है और फिर अपने इष्ट को उलाहना देता है कि मेरे लिए प्राप इतना विलम्ब क्यों कर रहे हैं- 1. मेरी बेर कहा ढील करी जी । सूली सौं सिंहासन कीना, सेठ सीता सती प्रगनि मे बैठी वारिषेण खडग चलायां, चानत में कछु जांचत नाहीं, इस प्रकार प्रपत्त भावना के सहारे साधक अपने सानिध्य में पहुंचकर तत्तद्गुणों को इसमें श्रद्धा और प्रेम की भावना का 2. 3. पर मुझे उससे कुव को तो दूर कर वही, पृ. 109 हिन्दी पद संग्रह पृ. 114-15 धर्मविभास, 54 वा पद्म सुदर्शन विपति हरी जी || पावक नौर करी सगरी जी । फूल माल कीनी सुथरी रौं । कर वैराग्य दशा हमेरी जी ॥ धाराव्य परमात्मा के स्वात्मा में उतारने का प्रयत्न करता है । प्रतिरेक होने के फलस्वरूप साधक सपने
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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