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________________ पहा से प्राप्त किया। सारा संसार स्वार्थ की पोर मिहारता है, पर तुम्हें स्वर कल्याण स्प स्वार्थ नहीं रुचता । इस अपवित्र अचेतन देह में तुब को मोहासक्त हो गये । अपना परम पतीन्द्रिय शाश्वत सुख छोड़कर पंचेन्द्रियों की विषयवासना में तन्मय हो रहे हो। तुम्हारा चैतन्य नाम जड क्यों हो गया और तुमने पन ते ज्ञानादिक गुणों से पुक्त अपना नाम क्यों भुला दिया १ त्रिलोक का स्वतन्त्र राज्य छोड़कर इस परतन्त्र अवस्था को स्वीकारते हुए तुम्हें लज्जा नहीं माती? मिथ्यात्व को दूर करने के बाद ही तुम कर्ममल से मुक्त हो सकोगे और परमात्मा कहला सकोगे। तभी तुम अनन्त सुख को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकोगे। . "जीव ! तू मूढपना कित पायो । सब जग स्वारथ को चाहता है, स्वारथ तोहि न भायो। अशुचि समेत दृष्टि तन मांहो, कहा ज्ञान विरमायो । परम प्रतिन्द्री निज सुख हरि के, विषय रोग लपटामो ।। मिथ्यात्व को ही साधकों ने मोह-माया के रूप मे चित्रित किया है । सगुण निगुण कवियों ने भी इसको इसी रूप में माना है। भूधरदास ने इसी को 'सुनि ठगनी माया त सब जग ठग खाया' कबीर ने इसी माया को छाया के समान बताया जो प्रयत्न करने पर भी ग्रहण नहीं की जा सकती, फिर भी जीव उसके पीछे दौड़ता रहता है। साधक कवि नरभव की दुर्लभता समझकर मिथ्यात्व को दूर करने का प्रयत्न करता करता है। जैन धर्म में मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ माना गया है । इसीलिए हर प्रकार से इस जन्म को सार्थक बनाने का प्रयत्न किया जाता है। खानतराय ने "नाहिं ऐसो जनम बारम्बार" कहकर यही बात कही है। उनके अनुसार यदि कोई नरभव को सफल नहीं बनाता, तो "अन्ध हाथ बटेर पाई, तमस ताहि मंवार" वाली कहावत उसके साथ चरितार्थ हो जायेगी। इसलिए उन्हें कहना पड़ा 'जानत क्यो नहिं हे नर मातमझानी' । प्रात्म चेतन को 1. अध्यात्म पदायमी, पृ. 360 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 124 3. संत वाणी संग्रह, भाग-, पृ. 57 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 116 5, वही, पृ. 1.15
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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