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________________ कविवर धानतराय थानतराय हिन्दी जैन साहित्य के मूर्धन्य कवि भावे नाम हैं। वे पच्यात्मरसिक पौर परमतत्व के उपासक थे । उनका जन्म वि० सं० 1733 में भागरा में हमा पा। कवि के प्रमुख ग्रन्थो में धर्मविलास स० 1780) प्रौर प्राममविलास उल्लेखनीय हैं । धर्मविलास मे कवि की लगभग समूची रचनामो का संकलन किया गया है । इसमें 333 पद, पूजायें तथा अन्य विषयों से सम्बद्ध रचनायें मिलती है। प्रामम बिलास का सकलन कवि की मृत्यु के बाद प० जगतराय ने स० 1784 में किया। इसमे 46 रचनाये मिलती हैं। इसके अनुसार धानतराय का निधन काल सं० 1783 कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी है। धर्मविलास में कवि ने स० 1780 तक की जीवन की घटनाओं का सक्षिप्त प्राकलन किया है । इसे हम उनका पात्मचरित् कह सकते हैं जो बनारसीदास के अधकथानक का अनुकरण करता प्रतीत होता है। इनके अतिरिक्त कवि की कुछ फुटकर रचनायें और पद भी उपलब्ध होते हैं । 333 पदों के अतिरिक्त लगभग 200 पद और होंगे। ये पद जयपुर, दिल्ली प्रादि स्थानों के शास्त्र भण्डारो मे सुरक्षित हैं। हिन्दी सन्त मध्यात्म-साधना को सजोये हुए हैं। वे सहज-साधना द्वारा परमात्मपद की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। उनके माहित्य में भक्ति, स्वसंवेद्यज्ञान भौर मकर्म का तथा सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का सुन्दर ममन्वय मिलता है जो प्रात्मचिन्तन से स्फुटित हुआ है। इस पथ का पथिक सत, संसार की क्षणभंगुरता, माया-मोह, बाह्याडम्बर की निरर्थकता, पुस्तकीय ज्ञान की व्यर्थता मन की एकाग्रता, चित्त शुद्धि, स्वसवेद्य ज्ञान पर जोर, सद्गुरु-सत्सग की महिमा प्रपत्ति भक्ति, सहज साधना प्रादि विशेषनामों से मंडित विचारधारामो में डुबकियां लगाना रहता है। इन सभी विषयों पर वह गहन चिंतन करता हुमा परम साध्य की प्राप्ति मे जुट जाता है। वि बानतराय की जीवन-साधना इन्हीं विशेषताओं को प्राप्त करने में लगी ही। और उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह एक मोर उनका भक्ति प्रवाह है तो दूसरी योर संत-साधना की प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति है। यही कारण है कि उनके साहित्य मे भक्ति प्रौर रहस्य भावना का सुन्दर समन्वय हुआ है। यहाँ हम कवि की पन्ही प्रवृत्तियों का संक्षिप्त विश्लेषण कर रहे हैं। साधक कवि सांसारिक विषय-वासना और उसकी प्रसारता एवं क्षणभंगुरखा पर विविध प्रकार से चिन्तन करता है । चिन्तन करते ससय वह सहजता पूर्वक भाबुक हो जाता है । उस अवस्था में बह अपने को कभी दोष देता है तो कभी तीर्थकरों को बीच में लाता है । कभी रागादिक पदार्थों की ओर निहारता है तो कभी तीर्थंकरों से प्रार्थना, विनती मोर उलाहने की बात करता है। कभी पश्चात्ताप करता हुमा दिखाई देता है तो कभी सत्संगति के लिए प्रयत्नशील दिखता है । पानतराय को तो यह सारा संसार बिल्कुल मिथ्या दिखाई देता है । वे अनुभव
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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