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________________ बि गये। ये काम्य प्रायः संस्कृत शैली का अनुकरण करते दिखाई देते हैं । महाकषि स्वयंम (लयमग 8वीं पासी) के पउमरिउ, रिट्ठणेमिचरित, पुष्पदंत का महापुराण (ई.965), धनपाल का भविसपत्त कहा अवल, (14वीं शती) का हरिवंशपुराण, पीरकवि का जदूसामिवरिउ, नयनंदि का सुदंसरणचरिउ, श्रीपर के भविसयत्त परिठ, पासणाहपरिउ, सुकुमालचरिउ, यशः-कीति का चंदप्पह चरिउ, योगीन्द्र के परमप्पयासु व योगसार, महर्षद का दोहापाहुड, देवसेन का सावयधम्म दोहा मादि ऐसे अन्य है जो काव्यात्मकता और प्राध्यात्मिकता को समेटे हुए हैं। इस पर हम अपनी मन्यतम पुस्तक 'मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना' में विधार 2. संस्कृत साहित्य संस्कृत की लोकप्रियता मोर उपयोगिता को देखकर जैनाचार्यों ने भी उसे अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया। सस्कृत का सर्वप्रथम उपयोग करने वाले जनाचार्य उमास्वाति रहे हैं जिन्होने तत्वार्थ सूत्र की रचनाकर भागामी प्राचार्यों का मार्ग प्रशस्त किया । वे सिद्धान्त के उद्घट विद्वान थे । उनका अनुकरण कर उनके ही ग्रन्थ पर तस्वार्थवातिक, सर्वार्थ सिदि, तत्वार्थ श्लोक वार्तिक आदि जैसे वृहत्काय ग्रन्थ लिखे गये । हरिभद्रसूरि, अमृतचन्द्र, जयसेन, प्राशाधर, सिद्धसेन सूरि, माघनन्दी, जयशेखर, अमितगति मादि प्राचार्यों ने विपुल साहित्य का निर्माण किया। म्याप के क्षेत्र में समन्तभद्र (2-3 री शती) की माप्तमीमासा, स्वयमूस्तोत्र पौर युक्त्यनुशासन ग्रन्थ मानदण्ड रहे है । प्राचार्य अकलक, विद्यानन्द और वसुनन्दि ने इन प्रथो पर टीकाये लिखी है। इनके अतिरिक्त सिद्धसेन का न्यायावतार, हरिपारि के मास्ववार्ता समुच्चय, षड्दर्शन समुच्चय और अनेकान्त जयपताका, अकलंक के न्याय विनिश्चय, सिद्धि विनिश्चय प्रादि तथा प्रभाचन्द्र मादि के ग्रन्थ जन न्याय के प्रमुख ग्रन्थ है। इनमे प्रत्यक्ष और परोक्ष की परिभाषायें सुस्थिर हुई है। यशोविजय (18 वी शती) ने नव्यन्याय के क्षेत्र को प्रशस्त किया है। माचार के क्षेत्र में भी उमास्वामी आद्य प्राचार्य रहे है। उनके बाद समन्तभद्र का रत्नकरण्ड श्रावकाचार, सोमदेव का उपासकाध्ययन, माशाधर का सागर धर्मामृत, सोमप्रभ सूरि का सिन्दूर प्रकरण उल्लेखनीय है । मागम साहित्य पर टीकायें लिखने वालो मे जिनभद्र (7 वी शनी), हरिभद्र (8 वी शती), मभयदेव (12 वीं शती), मलयगिरी (12 वीं शती, हेमचन्द्र (12 वीं शती) प्रमुख हैं। म्तोत्र परम्परा भी लम्बी है। समन्तभद्र के देवागम स्तोत्र और स्वयंभू स्तोत्र से इस परम्परा का प्रारम्भ होता है । सिबसेन की वत्तीसियां, मकलंक का मकसक
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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