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________________ तस्वार्थ बार्तिक के अनुसार सातारांग में भार, तीन पित, पांच समिति सानों का वर्णन है। इसी तरह षट्समागम भी प्राचारांग के विषय को मुनि पर्या, तक ही सीमित रखता है। नंदीसूत्र और समवायांग भी लगभग इस कंपन। सहमत है। वस्तुतः इसमें माचार और गोचर विधि का विस्मण राय पद्धति का प्ररूपण किया गया है। वर्तमान में उपलब्ध भाचारांग में दो श्रत स्काय हैं । प्रथम मत स्वास्थ का नाम 'बम्हरिय' है जिसके नव प्रध्ययन और उनके 31 उहक -1.* परिणा (शस्त्र परिज्ञा), 2. लोग-विजय (लोकविजय), 3. सीमोसगिज (सतो. गीय, 4. सम्मत्त (सम्यक्त्व), 5 प्राति प्रथया'लोगसार, 6. ध (धूत), 7, बिमोह (विमोक्ष), 8. उवहागसुप्र (उपधानश्रत), पौर 9. महापरिपा (महापरिमा) । प्राचारांग नियुक्ति में छठे अध्ययन धूत के बाद महापरिमा का नाम पाया है पौर उसे लुप्त माना गया है। प्राचाराग का द्वितीय श्रु तस्कन्ध प्रथम धुनस्कन्ध का परिशिष्ट है पी पोच चूलिकामो में विभक्त है। प्रथम चूलिका में, पिडषणा, शम्पवरणा, पिता, बाबाबातपणा, वस्त्रषणा, पात्रषणा और अवग्रहेषणा का वर्णन है। द्वितीय चूलिका में स्थान, निशीथिका प्रादि मात अध्ययन हैं। तृतीय भावना चूलिका में भ. महापीर का परित्र चित्रण है । चतुर्थ चूलिका विमुक्ति है जिसमें प्रारम्भ पार परित्रह से मुस होने की बात कही गई है। पाचवीं चूलिका बदाकार होने से पृथक् कर दी गई है जिसे निशीथ सूत्र कहा जाता है। इस प्रकार प्राचारोग के दोनों श्र तस्कन्धों में 25 अध्ययन और ईसा हैं। महापरिज्ञा को लुप्त मानने पर कुल 24 प्रध्ययन और 78 उद्देशक पास है। प्राचारांग की पद संख्या 1-00 मानी गई है। इस अंग का कुछ भागमय में है और कुछ पद्य मे । डॉ जैकोबी और सुविंग ने इसके छन्दों की मीमांसी की हुए प्राचीनतम मग माना है। भाषा और इंसी-भी इस सम्मको पुष्ट करती है। द्वितीय व तस्कन्ध स्तरकालीन है जो स्थविरकृत है। इस अंग की दो साजन' पाठ भेद के रूप में उपलब्ध है-प्रथम वाचना शीलांक की पत्ति में स्वीकृत पाप और द्वितीय नागार्जुनीय । वायना रूप देवषिणि अमात्रण ने इसे 'बष्णप्रो' पौर 'जाव' शब्दों का उपयोग कर संकलित किया है। विषय की दृष्टि से आचारांग समृर है। प्रदेसक मोर सनक दोनों परम्पराए इसमें समाहित है। यहां अचेलकता और वीतयगता को प्राधिक पाकर माना मया है । जैन धर्म की प्राचीनतम साधना. फान की जानकारी के लिए प्राचारांग प्रमुख अंग ग्रन्थ है । महावीर को जीवन पति का भी इसमें पल्या विवरण मिलता है । मांस मभण जैसे कुछ विषय हमारे समाप्रश्न चिन्ह प्रदायमा कर देते हैं।
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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