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________________ } Art 1 तब तक परिसानों में सरमता था ही नहीं सकती । जैन धर्म का वहीं सूब चार है कि हमें इस विकारी भावनाओं को बोर्ड और संरता की और कर मैं यह सरल नहीं होगी वह परिवार प्रायः चित्र- हो बाता है। बच्चे भी हमारे प्रधान वर्ष को दे हैं। शम्बः जितने मात्र क्रियाकाण्डी होते हैं उनमें स्वभावतः वादि nter afte होती है । सोमदेव सूरि ने ऐसे क्रियाकाण्ड प्रधान धर्म की एक पटना का उल्लेख किया है जहां क्रियाकाण्ड एक कुले को केवल इसलिए 'मार डा हैं कि उसने उनके पूजन द्रव्य को जा कर दिया था। मेरे कहने का मह नहीं है कि धर्म में किया नाम का कोई तत्व न हो। किया से बिना कहाँ ? मैं तो मात्र इतना ही कहना चाहती हूँ कि यि के साथ ज शुद्धि नहीं, सम्यग्ज्ञान की धारा उसके साथ जुड़ी नहीं, तब तक वह तो नहीं और कुछ भले ही हो । बालकों के समक्ष हमें धर्म का एसा रूप रखना चाहिए जो सीधा, सरल, नैतिक और व्यावहारिक हो और हमारे धर्म के विपरीत न हो। यह निर्विवाद तथ्य है कि हमारा जैनधर्म पूर्ख वैज्ञानिक है। व्यक्ति-व्यक्ति को शान्ति देने के लिए इसमें अनेक सुन्दर मार्ग स्पष्ट किये गये हैं। परन्तु कलिाई यह है कि इसे हम न घच्छी तरह समझ सके हैं और न समा सके हैं। ऐसी स्थिति में यदि युवा वर्ग क्रियाकाण्ड को देखकर, उसी को धर्म का मूल रूप समझकर वर्म से दूर भागने लगे और फिर हम उन्हें पथभ्रष्ट कहने में तो यह बस्ती बस्तुतः उनकी नहीं, हमारी है । हम उनको धर्म का सही रूप बता नहीं सके और न उनकी शक्ति का सही उपयोग कर पाये । उनके प्रश्नों का समाधान कठोर वचनों user डण्डों से नहीं, बल्कि सही दिशादान से होना चाहिए। इसमें हमारे परिणामों की सरलता विशेष उपयोगी हो सकती है । fer विधान की पृष्ठभूमि में साधारण तौर पर व्यक्ति के मन में कोई न कोई आशा लगी रहती है। व्यक्ति सांसारिक माता से मित्र-मिल करना कवित धार्मिक प्रावरण भी करता है। कभी-कभी उसके प्राचरण की प्रक्रिया से ऐसा भी समने लगता है कि वस्तुतः उसका were feat वर्म से नहीं, afe affesar की प्रभिवृद्धि से जुड़ा हुआ है। धर्म तो वस्तुतः पात्मिक विकारों को शान्त करने का एक ऐसा मार्ग है जिसके पीछे परम शान्ति की मला सकती रहती है । उस महक से वह व्यक्ति स्वयं तो सुरक्षित होता है पास के वातावरण को सुनन्द सुद बना देता है । - धर्म L1" भारतीय संस्कृति में धार्मिक विधि-विधानों की एक सभी प परध में प्रति परम्प का सम्बन्ध ऐसे विविधानों से है जिन्हें हम पूर्णतः
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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