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________________ पत खड़े करके उस निधिद्रव्य को बढ़ाने की प्रवृत्ति चालू रक्ख और अन्त मे वे स्वयं एक प्रामाणिक गृहस्थ के दर्जे से भी इतने अधिक नीचे घिसर गये थे कि यदि उनकी यह स्थिति विशेष समय तक चालू रहती तो वे अपने मनुष्यत्व से भी हाथ धो बैठते ऐसा प्रसंग आ पहुँचा था । उस समय उन्ही के सम्प्रदाय के एक सुधारक चैत्यवासी साधु श्री हरिभद्रसूरि ने कमर कसके उन्हें समझाना प्रारंभ किया। उस समय के एव भविष्य के जैन समाज को जागृत करने के लिये तद्विषयक अनेक ग्रन्थो की भी उन्होंने रचना की। उन ग्रन्थो मे चैत्यवासियों का सामना करने के लिये जो उल्लेख किये हैं उनमें यह भी लिखा है कि देव के नाम से, देवतीर्थ के नाम से और देव प्रवचन के नाम से जो द्रव्य संग्रहित किया गया है वह कोई एक व्यक्ति या समाज अपने विलास के कार्यों में नहीं खर्च सकता, अ स्वार्थ मे उसकी योजना नही कर सकता और उसका किसी भी तरह दुरुपयोग नही कर सकता। यदि उस द्रव्य का उपयोग सम्यक्त्वकी वृद्धि के लिये, ज्ञानप्रचार के लिये और प्रवचन प्रचार के लिये न किया जाय और मात्र किसी एक व्यक्ति या समाज के विलासार्थ ही उसका उपयोग किया जाय या उस धन का व्यवस्थापक स्वेच्छापूर्वक उसका उपयोग करे तो वह उपयोग करने वाला अप्रामाणिक, दुष्ट और नरक के दुःखका हिस्सेदार होता हैं इतना ही नही बल्कि यदि उस पवित्र द्रव्य को अनेक । अविहित्त उपयोसे बढाया जाय तो वह बढाने वाला भी उतने ही अपराध का पात्र बनता है, अत उस शाश्वतद्रव्य, निधिद्रव्य, जिनद्रव्य, या मंगलद्रव्य का उपयोग ऐसे मार्ग मे करना चाहिये जिससे उसकी ज्ञानदर्शन प्रभावकता एव प्रवचन प्रभावकता सफल हो। उस विशुद्ध द्रव्य का दरुपयोग होता देखकर जो मनुष्य उसके रोकने का प्रयत्न न करे उसे भी पपिष्ट की कोटि में रक्खा है। इस प्रकार देवद्रव्य भोजी च त्यवासियो को हटाने के लिये हरिभद्रसूरिजी ने बहु कुछ लिखा है । परन्तु उन्होने ऐसा कही नही लिखा कि यदि उस उपयोग ज्ञानप्रचार, प्रवचन प्रचार औरा सम्यक्त्वकी वृद्धि के लिये या सघ के हितार्थ किया जाय तो वह उपयोग करने वाला पापी या नरक गामी बनता है। प्रत्युत उन्होने इस द्रव्य को ज्ञानदर्शन प्रभावक और प्रवचन वृद्धि कारक के विशेषण देकर उन मार्गों में उसका उपयोग करना सुविहित विहित बतलाया है, याने शिष्टसम्मत दर्शाया है। फिर भी यदि हम कदाग्रह या · १ "जिणवर आणा रहिय बद्धरता वि केवि जिणदव्व । बुडतो भवसमुद्रे मूढा मोहण अन्नणी ।। १०२ ।। पृ० ४ 88
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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