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________________ अधीर न होकर निम्न बात को भी सावधनता पूर्वक पढ़लेने की कृपा कीजिये। जिस द्रव्य का अग ग्रन्थों में कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता, मात्र हरिभद्रसरि के ग्रन्थों पर से हम उस शाश्वतद्रव्य, मगलद्रव्य, निधिद्रव्य या जिनद्रव्य ऐसे एकार्थक नामों से पहचान चुके हैं और जिसके व्यय को सघहित के लिये शास्त्रानुमत साबित कर चुके हैं उस द्रव्य से लगते हुए शाश्वतद्रव्य जैसे व्यापक अर्थवाले जिनद्रव्य या देवद्रव्य शब्द के व्यापक अर्थ में संकोच क्यों किया गया? कब किया गया और उसके किस प्रकार के व्यय के सामने भयकर पापों को समन्वित किया गया यह प्रश्न है। जिन महाशयों ने उपरोक्त इतिहास को मननपूर्वक पढ़ा होग वो तो स्वय ही इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त कर सके होगे तथापि मुझे विशेष स्पष्टता के लिये यह बतला देने की जरूरत है कि जब उस मध्यम मार्ग का अन्तिम स्वरूप उत्पन्न हुआ और उस निधिद्रव्य, जिनद्रव्य, शाश्चतद्रव्य या मगलद्रव्य की व्यवस्था करने वाले साधु हरिभद्रसूरि के शब्दो मे वर्णित स्वच्छंदी विलासी और दभी हये तब वे महाशय अपने ममत्वास्पद इस सामाजिक एव पवित्र धन के वारिस-हकदान बने और कहने लगे कि इस द्रव्य का उपयोग तो हम ही कर सकते हैं, इसमे किसी अन्यक्षेत्र का जरा भी हम नही। भले ही दूसरे क्षेत्र कमजोर हो जायं तथापि इस द्रव्य का उपयोग उनकी पुष्टि के लिये नही हो सकता। वे इस द्रव्य पर अपना ही स्वामीत्व बतलाने के लिये यह भी कहने लगे कि यह जो देवद्रव्य या जिनद्रव्य है इस का उपयोग उसके व्यवस्थापक कर सकते हैं। देव की, देवमन्दिर की एवं उससे लगते हये अन्य कयों की व्यवस्था हम करते हैं अत इस द्रव्य पर हमारे सिवा अन्य किसी क्षेत्र का हम सभवित नही है, न संभवित होगा और न ही सभवित होना उचित है। तदुपरान्त वे साधु जिन, जिनशासन, प्रवचन, जिनमर्ति और जिनधर्म, इन सबके नाम से अधिकाधिक धन एकत्रित करने लगे तथा महाराजा लाइबलकेश वाले महन्त के समान कितनेक महानुभाव तो नित्य नयी रासलीला जैसी धर्मरूढिया भी रचने लगे। उन्होने उस द्रव्य को बढाने के लिये और उसकी नियमित आय कायम करने के लिये प्रसग २ पर उस समय के संध मे अनेक तरह के नये २ धतीग्ड प्रचलित किये। उस समय का विचारा भद्रिकसध क्या करता? वह तो दर्वासा ऋषि जैसे उन ऋषियों के (२) शापके भय से काम्पत हो वे जो कहे उसे ही तहत्ति करने लगा और उनके मनघडित कायम किये हए हकों के अनुसार धन भी देने लगा। उन्होने पूजा मे, तम मे अपनी लाग कायम की, शास्त्र पढाने के लिये और सुनाने के लिये द्रव्य कमाने की लाग कायम की। अनेक तरह के नये २ 83
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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