SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचन से अचलनीय वर्णित किया है, इससे वे सुक्ष्मविचारों को भी जानने के अधिकारी हैं। जिन विशेषणों द्वारा श्रीहरिभद्र जी श्रावकों को सूक्ष्म विचारों के परिज्ञान का अनधिकारी साबित करते हैं उन्हीं विशेषणों द्वारा हमारे धर्मगुरु हमें सूत्र पढने का अनाधिकारी बतलाते है। जिन सूत्रो में बिलकुल सादी और सरल बातें लिखी हुई हैं उन सूत्रों में ऐसा विषय क्वचित् ही आता है जो गुह्य, सूक्ष्म और गोप्य हो । इस विषय में मैं प्रथम बतला चुका हूँ कि जब श्रावकों को इन विशेषणों से संबोधित किया गया था उस समय सुत्रग्रन्थ लिपिसद्ध नहीं हुये थे, इससे श्रावक उन अरण्यवासी मुनियों के पास जाकर भगवान महावीर का प्रवचन सुना करते और उस श्रवण किये हुये प्रवचन स्वनामके समान कंठस्थ रखते थे। साधु भी ऐसा करते थे। समवायागसूत्र में उपासदशांग सूत्र के विषय का उल्लेख करते समय उपासकों के श्रुपरिग्रह- श्रुताभ्यास भी वर्णित किये गये हैं। उपसको के वे श्रुतपरिग्रह इस बात को स्पष्ट रूप से साबित करते हैं कि उस समय के श्रावक भी श्रीवर्द्धमान भगवान के प्रवचन को कठस्थ रखते थे। यदि उन्हें वैसा करने में अधिकारी न माना गया होता तो उस समय सूत्रों के सिवा ऐसा कौनसा श्रुत था जिसको वे स्वीकार कर सकते थे ? सूत्रो में ऐसा भी कहीं पर उल्लेख नहीं मिलता जिससे यह सिद्ध होता हो कि कोई श्रावक बारह अगो का पाठी हो, परन्तु इससे वे कुछ उसके अनाधिकारी साबित नहीं हो सकते, क्योंकि श्रावक को जितना श्रुत उपयोगी हो उतना ही वे पढते हो इससे कदाचित् उन्हें सम्पूर्ण ग्यारह या बारह अग को सीखने की आवश्यकता न पडी हो । साधुओं का तो स्वाध्याय ही व्यवसाय होने के कारण वे ग्यारह या बारह अंग सीखें या पढ़ें तो इसमें कोई नई बात नही है। सूत्रो में जहाँपर स्वप्न पाठकों का वर्णन आता है। वहाँ सब जगह उन्हें गहीयट्ठा, लट्ठा, आदि संबोधनो से संबोधित किया है। यदि इन विशेषणो या संबोधनो का यही अर्थ हो जैसा कि हमारे कुलगुरु बतलातते हैं तो फिर इन विशेषणों से श्रावकों के समान वे स्वप्न पाठक भी स्वप्नशास्त्रको मात्र सुनकर ही पंडित हुयें होने चाहिये, परन्तु स्वयं पढकर नहीं। यह बात संभव नहीं कि कोई मनीषी मनुष्य स्वप्न शास्त्रियों के लिये यह कहे कि उन शास्त्रों का अध्ययन किये बिना मात्र अर्थ को सुनकर ही वे शास्त्री बन गये हैं। तथा अर्थ को प्राप्त करने की मात्र सुनना ही उक रीति नहीं है, क्योंकि पढने से भी अर्थ प्राप्त किया जा सकता है, अत उपर बतलाते हुये ट्टा आदि विशेषण पढ़ने वाले वाचने वाले को भी लागू पड सकते हैं इसलिये पूर्वोक्त संबोधनों - या विशेषणों से श्रावक सूत्र के अनधिकारी सिद्ध नहीं हो सकते। यह तो सूत्र पढकर धन कमाने वाले चैत्यवासियों ने ही उन्हें सूत्र के 108
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy