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________________ "तेषु च निश्शेषमपि वाङ्मयमवतरति। अतश्रतुर्दशपूर्वात्मकं द्वादशमेवाडगमस्तु, किं शेवाडगविरचनेन, अडगबाह्यश्रुतरचनेनवा १ तत्र यद्यपि दृष्टिवादे सर्वस्यापि वाङ्मयस्याऽवतारोऽस्ति,तथापिदुर्मेधसांतद्वधारणद्ययोग्यानां मन्दमतीनां, तथा श्रावकादीनां स्त्रीणांचानुग्रहायं नि!हणा विरचना शेषश्रुतस्योति-(विशेषा• पृ० २६५-२६६, गा ५५१) _अर्थात् यदि सब अंगों का सार बारहवें अंग दृष्टिवाद में समा सकता हो तो फिर उन अंगों को जुदा रचने की क्या जरूरत है ? इस प्रश्न के समाधान में श्रीजिन भद्रसूरिने कहा है कि १ यद्यपि दृष्टिवाद में समस्त वाङ्मय समा जाता है तथापि जो लोग दुर्मेवस-कम बुद्धिवाले हैं उनके और स्त्रियों के लिये यह सारा श्रुत रचा गया है" जिन भद्रसूरिकृत इस गाथापर की गई टीका में बतलाया है कि "दुर्मेधस याने जो दृष्टिवादको समझने जितनी बुद्धि नहीं रखते उनके तथा श्रावकादि और स्त्रियों के लिये वाकी का अगश्रुत या अन्तश्रुत रचा गया है।" ऊपर बतलाये हुये एक से अधिक पुष्टप्रमाणों से यह बात स्पष्टतया सिद्ध होती है कि आगमों की प्राकृत भाषा इसी लिये रक्खी गई है जिससे उसके द्वारा आवाल गोपाल उन्हें आसानी से पढकर लाभ उठा सकें। इस प्रकार हम भाषादृष्टि से आगम प्रमाण पूर्वक गृहस्थियोंको आगम पढनेका अधिकार साबित कर सकते हैं। शास्त्रीय दृष्टि भी इस अधिकारको पृष्ट करती है। इस विषयमें मैं यह कहता हूँ कि यदि श्रावको को आगम पढने का अधिकार न होता तो उस विषय का निषेधात्मक उल्लेख किसी अंगसूत्रग्रन्थ मे क्यों नहीं मिलता? आचाराअग सूत्रमे साधुओं के अनेक तरह के आचार विहित पिये हैं, उसमें कहींपर भी भिक्षु ने या भिक्षुणी ने श्रावको को आगमन पढाना ऐसा उल्लेख क्यों मिलता? कदाचित् कोई यह कहे कि सूत्र ग्रन्थो में श्रावको को लब्धार्थ गृहीतार्थ, पृष्टार्थ और विनिश्चितार्थ कहकर सम्बोधित किया है, इससे वे मात्र अर्थ को ही अधिकारी हो सकते हैं परन्तु सूत्र के अधिकारी नहीं। इस विषय मे मै कुछ कहूँ इसकी अपेक्षाहरिभद्रसूरिजी का कथन विशेष न्यायेपेत गिना जायगा। जब चैत्यवासिनीयों ने कहा कि श्रावको के सामने सूक्ष्म विचार न कहने चाहिये उस समय इस बात कर अयुक्तता सिद्ध करते हुये हरिभद्रसूरिने अपने सम्बोध प्रकरण के १३ वें पृष्ठ पर कथन किया है कि “त न जओ अंगाइसु सुब्बइतबन्नणा एव ।। २६ ।। लठ्ठा, गहियठ्ठा, पुच्छियठ्ठा विणिच्छियठ्ठाय । अहिगजीवाजीवा अचालणिज्जा पवयणओ,।। २७ ।। अर्थात् चैतन्य वासियों का उपरोक्त कथन अयुक्त है, क्योंकि अंगसूत्रो में श्रावको को लब्धार्थ,गृहीतार्थ, पृष्टार्थ, विनिश्चितार्थ, जीवाजीव के जानने वाले और 107
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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