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________________ में व्यपन करें तथापि उस क्षेत्र में कुछ हानि होने का संभव नहीं है। फिर भी इस क्षेत्र के विषय में मैं इतना तो जरूर कहूँगा कि जो जीर्ण जिनालय हों या अपूर्ण हों उन सब को सुधरवाने के लिये एव पूर्ण करने के लिये इस द्रव्य का मर्यादित उपयोग होना आवश्यक है। __ इस प्रकार मे बुद्ध के मध्यम मार्ग के असर से प्राप्त हुये जैनमध्यम मार्ग का इतिहास देकर उसके प्रारंभिक सूरियों की अकिंचनता बतला कर, उन सरियो की प्रजा की अकिचनता और लोकहितार्थ धनग्राहित एव इस मद्दे मे उस समय के बाद की साधु प्रजा की धन लोलुपता और स्वच्छदता बतला चुका हूँ। उस धनलोलुप चैत्यवासी प्रजाने उस द्रव्य के शाश्वत द्रव्य, जिनद्रव्य, मंगलद्रव्य और निधिद्रव्य जैसे विशाल अर्थवाले शिष्ट सम्मत नामों पर हड़ताल फेर कर अपने बचाव के लिये उनका संकुचित अर्थ उपस्थित कर समाज को भ्रम मे डालने की बात भी स्पष्टतया विदित कर दी गई है। यह बात भी प्रगट हो गई है कि आचार्य श्रीहरिभद्रसरि ने उन नामो को ज्ञान दर्शन प्रभावक और प्रवचन वृद्धिकारक के विशेषण देकर उन सब का विशाल अर्थ ताजा करके और उस अर्थ को ही सामने रखकर चैत्यवासियो की खुब मट्टी पलीद की है। उस समय के पीछे के साहित्य मे जो भक्खणे देवद्रव्यबस्स का उल्लेख मिलता है उसका असली भाव भी ऊपर बतला दिया गया है। इन सब बातो का सार यह निकलता है कि वर्तमान मे मात्र हमारे आग्रह एव विवेकसे ही हम इन सब सरल और शिष्ट उल्लेखो का उलटा तथा अशिष्ट अर्थ करके उन्हे विकृत करते हैं और ऐसा करके हम माधन होने पर भी पादे कठार की प्रवृत्ति मे लीन हो रहे है। इस प्रकार मैंने यथामति मर्तिवाद और देवद्रव्यवाद, जिन के विधान की ब तक भी अग ग्रन्थो मे नही मिलती उन्हे सूत्र पीछे के साहित्य के प्रमाणो की और उस समय के उपलब्ध इतिहास की सहाय से आपके समक्ष चर्चास्पद रीति से उपस्थित किये हैं। अब मैं अन्त मे तत्व ग्राम या तत्व परीक्ष्य विवेकिभि कह कर इस द्वितीय मुद्दे को यहा ही समाप्त करता हूँ?
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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