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________________ स्थिति होने पर भी यदि हम * अपने कल्पित किये हुये और भगवान श्रीमहावीर के नाम पर आरोपित किये हुये जिनद्रव्य शब्द को और उसके अयुक्त संकुचित अर्थ को ही पकड़कर अपने आग्रह, स्वच्छद एव सत्ता का पोषण करें तथा बर्तमान समय मे क्षीण होते हुये क्षेत्रों की उपेक्षा करें तो सप्तवारा हो । गोयमा, ! उल्लेख हमारे सिवा और किस भद्रपुरूष को संघटित हो सकता है !!! आज से कुछ वर्ष पहले श्रीमान् कुंवर जी भाई ने अपने लिखे हुये देवद्रव्य नामक निबन्ध मे उपरोक्त बात को बिल्कुल स्पष्टतापूर्वक पुष्ट की है। उन्होने लिखा है कि "श्राद्धविधि तथा योगशास्त्र दीपिका आदि अनेक ग्रन्थों कहा है कि पुण्यवन्त श्रावको को चाहिये कि वे पुण्य धर्म की वृद्धि के लिये तथा शासन के उद्योतके निमित्त जिनमन्दिर, धर्मशालाये, पोषधलायो, उपाश्रय, ज्ञानके भण्डार, प्रभुके आभूषण, प्रभुके पधराने के रथ, पालिकिये, इन्द्रध्वजाये, चामर, चैत्य के उपकरण, तथा ज्ञानके उपकरण वगैरह अनेक वस्तु अपने द्रव्य से अथवा प्रयास से निष्पन्न हुये देव्दव्य से बना बनाकर उन साहित्यो से शासन की उन्नति करके बादमे बाद मे उनकी व्यवस्था देती रहे वैसा वन्दोवस्त करके अथवा कुछ द्रव्य की आमदनी करके श्रीसंघ को सार सभाल करने को सौंप दें" (देवद्रव्य पृ० ५) जब इस उल्लेख द्वारा देवद्रव्य के खर्च से ज्ञान के उपकरण बनाने की अनुमति दी गई है तो वर्तमान काल में समाज मे शिक्षण का प्रचार करने के लिये हम उसी द्रव्य से राष्ट्रीय पाठशालाये, राष्ट्रीय महाविद्यालय और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करे तथा उसके साधन छात्रालयो, छात्र वृत्तियो और पुस्तकालयो मे उस द्रव्य का व्यय करे एव तदुपरान्त सघरक्षा के • मूलभूत संघ के स्वास्थ्यकी रक्षार्थ उस द्रव्य द्वारा जगह २ ब्रह्मचर्याश्रम, औषधालय, व्याशमशालायें स्थापित करे तो इसमे कौनसा शास्त्र निषेध करता है? मेरी मान्यतानुसार तो इस प्रवृत्ति में हमारे कुलगुरूओ एव व्यवस्थापको की कदाग्रह - सत्ता और स्वच्छन्दता के सिवा अन्य कोई भी रोडा नही अटकाता। लंबे समय से आजतक हमारे दर्शन (सम्यत्तव ) की शुद्धि और वृद्धि के निमित्त उस मार्ग में बहुत सा धन खर्च हुआ और उसका पानी समान् अमर्याद उपयोग किया गया है, यदि अब से एक सौ वर्ष तक भी हम उस मार्ग *न हु देवाण वि दव्व सगविमुक्काण जुज्जए किमवि । नियसेवगबुद्धीए कप्पिय देवदव्व त । । (९०) सबोधप्र० पृ० ४ 91
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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