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________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ५५ है ?10 दूसरी वात यह है कि गोम्मटसार जीवकाड गाथा १६६ मे वनस्पतिकायिक-विकलत्रय पचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यो के ( केवल शरीर-आहार शरीर को छोडकर ) शरीरो मे वादर निगोदिया का स्थान बताया है। और सातवी पृथ्वी के नीचे वातवल्यो को छोडकर शेष स्थान मे न प्रत्येक वनस्पतिकायिक है और न स है इससे भी वहाँ बादर निगोद का अभाव सिद्ध होता है। प्रश्न-सातवे नरक के नीचे नित्य निगोद का स्थान मान ले तो क्या हानि है ? उत्तर-ऐसा त्रिलोक सार की आर्यिका विशुद्धमति जी कृत हिन्दी टीका के पृष्ठ १५१ तथा ग्रन्थारम्भ मे दी गई त्रिलोका कृति मे प्रदर्शित है। किन्तु वह भो शास्त्र सम्मत नही है। यह विशेष कथन उनका स्वकल्पित है। त्रिलोक सार की मूल' गाथा सस्कृत टोका और वचनि का किसी मे ऐसा कथन नही है और न किसी अन्य ग्रन्थ मे ही ऐसा कथन है। प० पन्नालाल जी आचिटेक्ट दिल्ली ने भी तीन लोक के नकशे मे सातवें नरक के नीचे नित्य निगोद प्रदर्शित किया हैवह भी सम्यक् नही है। नित्य निगोद वहाँ मानने मे यह बाधा आती है कि-नित्य निगोद सूक्ष्म तथा वादर दोनो प्रकार का होता है। देखो-गोम्मटसार जीवकाड गाथा ७३ ( यही कथय ‘पचसग्रह' तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा की शुभचन्द्र १.. चर्चा समाधान ( चर्चा न० ६५ ) में सातवें नरक के नीचे बादर निगोद ( पचकल्याणक ) का अभाव बताया है। सुदृष्टि तरगिणो मे भी #० टेकचन्द जी सा० ने लिखा है कि सातवें .. नरक के नीचे बादर निमोद बताने वाले भोले जीव हैं।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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