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________________ ४४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ संस्कृत टिप्पणकार ने भी यही अर्थ किया है - "निगोद. नारकोत्पत्ति स्थानानि ।" धर्म विलास ( द्यानतराय कृत ) पृष्ठ १७ - ( उपदेश शतक ) 4 वसत अनन्तकाल बीतत निगोद मांहि । अनन्तभागज्ञान अनुसरे है । अखर छांसठि सहस तीन से छत्तीस वार जीव । अंतर मुहूरत मे जन्मे और मरे हैं ॥ ४८ ॥ दौलत विलास पृष्ठ ८० - जव मोहरिपु दीनी घुमरिया तसवश निगोद मे पडिया । } तहं श्वास एक के मांहि अष्टादश मरण लहाहि ॥ हि मरण अन्तर्मुहूर्त मे छयासठ सहस शत तीन ही। षट्तीस काल अनन्त यो दुख सहे उपमा ही नहीं ॥ पृष्ठ ३७ -- फिर सादि औ अनादि दो निगोद मे परा, जहं अंक के असंख्य भाग ज्ञान ऊबरा । तहं भवअन्तर्मुहुर्त के कहे गणेश्वरा । छयासठ सहस त्रिशत छत्तीस जन्मधर मरा । यो बसि अनन्तकाल फिर तहाँ ते नीसरा ॥ · इन उल्लेखो मे ६६३३६ क्षुद्रभव सिर्फ निगोद-एकेन्द्रिय के ही बताए हैं यह ठीक नही है । 1 वृन्दावन कृत चौबीसी पूजा ( विमलनाथ पूजा जयमाल ) मे यह कथन ठोक दिया हुआ है वहाँ देखो । श्वेताम्बर ग्रन्थो में इस विषय मे कथन इस प्रकार है f
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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