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________________ ६४६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मे प्रोपधोपवास और सामायिक करने वाले श्रावक आराम से व्रत पाल सके इस खयाल से गृहस्थ निर्जन एकात स्थान मे वसतिकाये भी बनवाते थे। उनमे मुनियो को ठहराते थे। वैसे मुनि तो शून्यागार, विमोचितावास स्मशान गिरिकदरादि मे भी निवास करते है। इस तरह इन सव के ग्रहण करने में भी मुनियो के उद्दिष्ट दोप आने की सम्भावना नही रहती है ।। ___ आपने लिखा-"कोनूर मे एक समय ७०० मुनि माये उन्हें बाधा होने पर राजा ने उसी समय ७०० गुफायें वनवाकर मुनियो की बाधा दूर की" । इस पर हम पूछना चाहते हैं किराजा भोज के पास क्या कोई जादू था जो उसने तत्काल एक दो नहीं किन्तु सात सौ गुफाये बनवा दी और अगर जादू नहीं था तो जब तक गुफायें बनने मे वर्ष महीने लगे तब तक क्या मुनि खडे ही रहे ? । इस तरह आपने अपने इस कथन से दिल मुनिचर्या (सिंह वृत्ति) का एक तरह से उपहास ही किया है । आगे आप फिर इसी तरह लिखते हैं कि- तेरदालग्राम मे हजारो मुनियो के निमित्त तत्काल हजारो वसतिकाये बनवाई गई थी आदि" उत्तर मे निवेदन है कि हमे यह नहीं देखना है कि अमुक ने यह किया, वह किया। हमको तो मुख्यत यह देखना है कि "शास्त्राज्ञा क्या है " क्योकि अविवेक-अज्ञान और शिथिलाचार कोई आज ही नया पैदा नहीं हुआ है यह तो अनादि से चल रहा है अत किसी हीन उदाहरण (नजीर) को विधेय नही माना जा सकता विधेय तो शास्त्र-समत क्रिया को ही माना जायगा। (३) आपने लिखा- श्रावक अपने लिये आहार बनाकर उसमे से मुनि को देवे यह भी उद्दिष्ट ही है। उद्दिष्ट का
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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