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________________ उद्दिष्ट दोष मीमासा ] [ ६४५ मे किया है । भट्टारक शुभचन्द्र ने भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा ४४६ की टीका मे वह प्रकरण विजयोदया टीका से उद्ध त किया है । उसका कुछ नमूना हम यहा हिन्दी मे लिख देते हैं - ___ "जो मुनि छह काय के जीवो की विराधना करके कारीगर से खुद वसतिका बनाता है या दूसरो के मारफत कारीगर से बनवाता है। वह अध.कर्म से दूपित वसतिका समझनी चाहिये। जितने दीन अनाथ व अन्य तापसी आयेगे अथवा निग्रंथ मुनि आयेंगे उन सब के लिये यह वसतिका होगी इस उद्देश्य से श्रावक द्वारा बनाई गई वसतिका उद्दिष्ट दोष युक्त होती है। अपने लिये घर बनाते समय "यह कोठरी साधुओ के लिये होगी ऐसे खयाल से श्रावक द्वारा बनवाई गई वसतिका अध्यधि दोषयुक्त होती है।" इत्यादि प० आशाधरजी ने भी सागारधर्मामृत अध्याय ५ श्लोक ४६ मे अतिथि के लिये आहार, औषध, आवास-पुस्तक-पीछी आदि को ४६ दोपो से रहित देने को कहा है। ___ आपने लिखा 'पीछी, कमडलु गरम पानी आदि वस्तुयें गृहस्थो के उपयोग मे नही आती वे तो मुनियो के निमित्त ही तैयार करनी पड़ती हैं।" इसका उत्तर यह है किपोछी कमडलु का उपयोग व्रती श्रावक प्रोषधोपवास मे करत है। और सचित्त त्यागी श्रावक गरम पानी को काम मे लेत है। गरम पानी तो गृहस्थ के यहा अन्य भी कई काम के वास्ते बनता रहता है । अत ये लोग इन वस्तुओ को अपने लिये य अन्य साधर्मी व्रर्ती श्रावको के काम मे आने के लिए तैयार रखते है उन्ही मे से मुनियो को दे देते है । सर्दी, गरमी, बरसार
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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