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________________ ६३= ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ इन उद्धरणोसे सहज ही जाना जा सकता है कि जैन धर्मके आचार शास्त्रो मे भिक्षा शुद्धि के लिये उद्दिष्टादि दोषो के टालने को कितना महत्व दिया गया है । जिसे कि आप मामूली समझते है । भिक्षा शुद्धि को अचौर्य व्रत की भावनाओ मे भी गिनाया है । अत उसकी अवहेलना से महाव्रत के घात का भी प्रसंग आता है । इसके सिवा मूलाचार अधिकार १० गाथा १८ मे अचेलकादि दस प्रकार का श्रमणकल्प बताया है उसमे दूसरे नम्बर पर अनौद्द शिक भेद भी बताया है ये श्रमणो के लिंग = चिह्न बताये हैं इससे सिद्ध है कि - बिना उद्दिष्टादि त्यागके मुनित्व ही नही और इसीलिये उद्दिष्ट दोष को ४६ दोषो मे प्रथम स्थान दिया है | आचार्य ने जगह-जगह इन दोषो से बचते रहने का निर्देश किया है देखो मूलाचार अ० ६ गाथा ४६ | अध्याय १० गाथा १६, २५, २६, ४०, ५२, ६३, ११२, १२२ । अध्याय ५ गाया २१०-२१८ | अध्याय ६ गाथा ७-८ आदि । इस तरह जब ये दोष ही नही, किन्तु महाव्रतादि मूल गुणो के घातक प्रखर दोष सिद्ध होते है तत्र ये अवश्य प्रायश्चित के योग्य हैं क्योकि प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ ही यह है कि - प्राय यानी दोषो का चित्त यानी शुद्धीकरण । एक तरफ तो इन्हे दोष भी मानना और दूसरी तरफ प्रायश्चित्त के अयोग्य भी कहना यह परस्पर विरुद्धता है । किसी भी आचार्य ने इन्हे प्रायश्चित्त के अयोग्य नही बताया है क्या कोई दोष भी अङ्गीकार के लिए होते है ? जब अङ्गीकार के लिए नही होते तो स्वत ही ये दोष प्रायश्चित्त के योग्य सिद्ध होते हैं । जितने असख्य विकृत परिणाम है, उतने ही प्रायश्चित्त भी होते हैं । आपने जो उद्दिष्टादि दोषो को जान लेने पर भी उसकी शुद्धि प्रतिक्रमण से ही होजाना लिखा है वह भी मन कल्पित है,
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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