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________________ उद्दिष्ट दोप मीमासा ] [ ६३७ नही दिया जाता । इन दोपो की अवहेलना करने का अर्थ है एपणा समिति का पालन नही करना । अर्थात् मूलगुण का घात करना । " नष्टे मूले कुत शाखा" जब मूलगुण ही नही तो साधु का अन्य आचार सब निरर्थक है । जैसा कि मूलाचार के समयसाराधिकार मे कहा है - मूलं छित्ता समणे जो गिण्हादी य बाहिर जोगं । बाहिर जोगा सव्वे मूल विहूणम्स कि करिस्सति ॥२७॥ अथ - जो साधु मूलगुणो का विघात करके वृक्षमूलादि अन्य बाह्य योगो को साधता है । उस मूलघाती के वे बाह्ययोग किसी काम के नही है । पुन कहा है वदसीलगुणा जम्हा भिक्खा चरिया विशुद्धिएठति । तम्हा भिक्खाचरियं सोहिय साहू सदा बिहारिज्जा ॥ ११२ ॥ भिक्ख ari हृदयं सोधिय जो चरदि णिच्चसो साहू । एसो सुटिठसाद्ध भणिओ जिणसासणे भयवं ॥ ११३ ॥ अर्थ - भिक्षा शुद्धि के होने पर ही व्रत शीलादि गुण तिष्ठते हैं । इसलिये साधु को सदा भिक्षाचर्या को शोधकर चलना चाहिये । टीकामे लिखा है कि- भिक्षाचर्या शुद्धिश्च प्रधान चारित्र सर्वशास्त्रसारभूतमिति । ” भिक्षा की शुद्धि यह एक प्रधान चारित्र है और सकल शास्त्रो की सारभूत है ॥ ११२ ॥ | जो साधु नित्य भिक्षा, वचन, और हृदय को शोधकर विचरता है । उसी को भगवान् ने जिन शासन मे श्रेष्ठ साधु माना है ॥११३॥
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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