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________________ साधुओं की आहारचर्या का समय ] [ ६०६ पठमं पोर सिसमझायं वीयं झाणं झिपायई । तइयाये भिक्खायरि यं पुणो चउत्थी ये सज्झायं। अर्थात्- ज्ञानीमुनी दिन के चार भाग करके पहिले भाग को स्वाध्याय करने मे दूसरे को ध्यान करने मे तीसरे को भिक्षा वृति मे और चौथे भाग को फिर स्वाध्याय करने मे व्यतीत करे। दिन-रात के आठ पहरो मे मुनिके लिए केवल दिन का तीसरा पहर भिक्षा के लिए बताया है उसी मे वह शहर मे भ्रमण करके एक पहर काल के समाप्त होने से पहिले भोजन कर चुके और पुनः आकर अपने स्वाध्याय करने लग जावे। अर्थात् मध्याह्न (दोपहर) बीतने पर फिर आहार बताया है। (२५) ब्र० गुणदासकृत-श्रेणिक चरित्र (मराठो) पृ० १७ अ० १ (वि० स० १५०८ की रचना) (सकलकीति के शिष्य ब्रह्म जिनदास उनके शिष्य व० गुणदास थे) आइ कोति निधने जाले द्वार पेरवणी ऊझे ढाले। मगवाट पाहति भले । सत्यस्त्राचि ॥१३॥ चौदा घड़ियां अनंतरी ।मुनीश्वर येति भांवरी । भव्य श्रावकाच्या धरो। अतिथे देखा ॥१३॥ इसमे भी सूर्योदय से १४ घडी के बाद ( यानि १२ बजे मध्याह्न) मुनीश्वर आहारचर्या-भ्रामरी करने का कथन किया है। (२६) तिलोयपण्णत्ती अ० ४ गाथा १५२४-२५ सचिवा चवन्ति सामिय सयल अहिंसा वदाण आधारो संतो विमुक्क संगो तणुद्वाण कारणेण मुणी ।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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