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________________ ५६२ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ लिखनेसे यही फलिताथं निकलता है कि विकाल मे उक्त चार घडियो के अन्दर २ जहाँ जैसा भी सुभीता दीखे उतना ही टाइम देव वन्दना मे लगाया जावे । इसलिये मध्याह्न मे आहार लेने वाले मुनि को भी माध्याह्निक देव वन्दना मे उतना ही टाइम लगाना चाहिए, जिस से ऊपर बताये भिक्षाकाल का उल्लङ्घन न होने पावे। __ मूलाचार की तरह आशाधर ने भी अनगार धर्मामृत के ८वें अ० मे छह निक्षेपोके द्वारा छह आवश्यकोका वर्णन विस्तार से किया है । फिर वाद मे श्लोक ७६ मे वन्दना का उत्कुष्ट काल ६ घडी का लिखा है। किन्तु उन्होने जघन्य काल का कोई परिमाण नही लिखा है। इससे यही तात्पर्य निकलता है कि मुनि को जैमा भी अवसर दीखे उसी माफक वह छह घडी के नीचे वन्दना मे कितना भी काल लगा सकता है। जिस मुनि को आहार करना है और शास्त्रोक्त भिक्षाकाल का उल्लङ्घन भी नही करना है ऐसे अवसर मे वह बहुत थोडा समय ही देव वन्दना मे लगाकर इस काम से फारिग हो सकता है। मतलब यह है कि देववन्दना में कम से कम इतना समय तो निश्चित लगावेही ऐसा न तो मूलाचार में लिखा है और न अनगार. धर्मामृत मे । आशाधर ने इतना ही लिखा है कि छह घडी से अधिक न लगावे । कम से कम कितना काल लगावे यह नहीं लिखा । बल्कि पूर्व लिखे उद्धरण मे तो आशाधरजी ने आहार करने वाले साधु के लिए माध्याह्निक क्रियाकर्म का उल्लेख ही नही किया है। पुरुषार्य सिद्धयुपाय श्लोक १४६ मे अमृतचन्द्राचार्य ने तो स्पष्ट से प्रातः साय दो वक्त ही सामायिक आवश्यक बताई है।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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