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________________ नदोश्वर मुक्ति का १८ वा. पद्य ] . [ २७. . अर्थ, मेरु पर सुगन्धित जल से.. भगवान् का अभिषेक किये वाद-देवो ने जय जय शब्द के कोलाहल के.साथ उत्तम चूर्ण और सुगन्धित जल को आपस मे एक दूसरो पर डाला। इसी विषय को जटासिंह नन्दि कृत वरागचरित मे भीस्पष्टता से वताया गया हे निम्नाकित श्लोक देखियेतत प्रहृष्टो वर चूर्णवासः, सद्गधिमिश्र. सलिल सलीलम् ॥ लाक्षारस रंजनरेणुभिश्च, चिक्षेप गानेषु परस्परस्य । ॥१०१॥ सर्ग २३ अर्थ-पूजा किये वाद हर्षित हुए राजा ने लीला पूर्वक उत्तम सुगन्धित चूर्ण और उत्तम गध मिश्रित जल को तथा लाल रग गुलाल' को परस्पर मे एक-दूसरो के शरीर पर डाला। __ ऊपर के इन दो उद्धरणो से स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि-महाभिषेक पूजा समारोह की पूर्णता के अवसर पर इन्द्रादि देव आनन्द विभोर होकर आपस मे सुगन्धित चूर्ण और रग-रगीला सुगन्धित जल एक दूसरे के शरीर पर डालते थे और इसी का अनुसरण प्राचीन काल मे मनुष्य श्रावक भी करते थे जैसा कि ऊपर वराग चरित्र मे बताया है । यह प्रथा. श्वेतावरो के यहाँ तो अव भी प्रचलित है, उनके यहाँ पयूषण, पर्व मे एकम के रोज भगवान का जन्म कल्याणक मनाते हुए अभिषेक पूजा करके फिर सर्वसाई परस्पर एक दूसरे के कपडो पर केशरिया रंग का हाथ का छापा लगाते है । आज दिगम्बर सम्प्रदाय मे इस प्रकार की परम्परा का लोप हो गया है किन्तु ऊपर लिखे नन्दीश्वर भक्ति पाठ के १८ वें पद्य का यही आशय है । उस पद्य मे इन्द्रो का एक विशेषण "दृष्ट विकृत विशेषा" लिखा है उससे तो यह वात- और भी स्पष्ट हो जाती है कि-इन्द्रो के परस्पर मे सुगन्धित चूर्ण या सुग
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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