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________________ ५६० ] [* जैन निवन्ध रत्नावंलो भाग २ चारित्रसार मे ५ प्रकार के ब्रह्मचारी वताये हैं उनमे दूसरा भेद अवलम्ब ब्रह्मचारी है उसका स्वरूप इस प्रकार लिखा है अवलव ब्रह्म चारिण क्षुल्लकरूपेणागममभ्यस्य परिगृहीत गृहावासाभवति अर्थात् अवलव ब्रह्मचारी वे है जो क्ष ल्लक का वेप धरकर आगम का अभ्यास करते हैं फिर गृहस्थ हो जाते है। यही कथन सागारधर्मामृत अ०७ श्लोक १६ की टीका मे तथा कातिकेयानुप्रेक्षा की शुभचन्द्र कृत टीका पृ २८६ मे उद्धृत है। धर्म सग्रह श्रावकाचार अ. ६ श्लोक २१ मे तथा लाटी सहिता सर्ग ७ श्लोक ७३ मे भी यही वर्णन है। ऐसे क्ष ल्लको की कथा हरिषेण कथाकोष न० ६४ मे है। द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक की 'ऐलक' सज्ञा लाटी सहिताकार पं० रायमल जी द्वारा बताना सही नहीं है, क्योंकि लाटी सहिता सर्ग ७ श्लोक ६५ मे 'तत्र लकः' पद है वह गलत प्रतीत होता है कारण कि वही श्लोक ५५ 'क्ष ल्लकश्चलकस्तथा' और श्लोक ५८ 'विद्यते चलकस्यास्य' मे स्पष्टतया 'चलक' पाठ दिया है अत श्लोक ५६ से भी 'तलक' की जगह 'तच्चलक' शुद्ध पाठ होना चाहिए। इस तरह लाटी सहिताकार ने 'चैलक' नाम द्वितीयोत्कृष्ट के लिए दिया है। सस्कृत भाषा की दृष्टि से भी 'चलक' पाठ शुद्ध सार्थक है, 'ऐलक' नही । चैलक सज्ञा लाटी संहिताकार की निजी कल्पना नही है किन्तु इसके रूप पूर्व साहित्य मे सन्निहित पाये जाते हैं। रत्नकरण्ड मे 'चैल खडधर' पद इसी अर्थ में प्रयुक्त है। पउम चरिय (विमलसूरि कृत) प्राकृत ग्रन्थ के सर्ग ६७ वे मे 'चेल्लम' और 'चेल्लसामी' (चेल-स्वामी शब्द इसी अर्थ मे प्रयुक्त है। दशव कालिक की हरिभद्र सूरि कृत टीका मे भी 'चेल्लय रूव काऊण' वाक्य मे
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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