SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 545
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावक की ११वीं प्रतिमा ] ५४७ खेडे वि ण कायव पाणिप्पत्त सचेलस्स । निच्चेलपाणिपत्त उवइष्ठं परमजिणवारदेहि ॥१०॥ बालरंगकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूण । भुजेइ पाणिपत्त दिण्णण्ण इफ्क ठाणम्मि ॥१७॥ यहाँ यह कहा है कि-वस्त्रधारी को खेल मे भी पाणिपान मे आहार नहीं करना चाहिये । परम जिनेद्रो ने निर्वस्त्रो-नग्नसाघुओ के लिये ही हाय मे भोजन करने का उपदेश दिया है। साधुओ के बाल की अणीमात्र भी परिग्रह नही होना चाहिये । तदर्थ वे भोजन भी पात्रमे नही करते-हाथ मे ही करते हैं। वह भी एक स्थान मे और दूसरो का दिया ROM:13.EDANCC हुआ। - इसलिये ११वी प्रतिमाधारी के वास्ते जो यहा पाणिपात्र मे आहार करना लिखा है। उसका मतलब यही हो सकता है कि-वह पात्र मे से भोजन को अपने एक हाथ में लेकर उसे थोडा २ दूसरे हाथ से जीये। जैसा कि भूधरदासजी ने पार्वपुराण में लिखा है एक हाथ पै ग्रास धरि एक हाथ सो लेय । श्रावक के घर आयके ऐलक असन करेय ॥ [२०० अधि०६] किन्तु दुग्ध, तक, खीर, रसादि तरल खाद्य के साथ चूरकर रोटी आदि खाने के विशेष अवसर पर वह पात्रका भी उपयोग कर सकता है ऐसा अभिप्राय चामुण्डरायका ज्ञात होता है। क्योकि उन्होंने 'पाणिपात्रपूटेन भोजी' लिखा है। जिससे उसका अर्थ हाथ और पान दोनो मे भोजन करना हो सकता है। -
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy