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________________ ५४६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ आतापनादि योगो को छोड़कर रात्रि प्रतिमादि तपश्चरण में उद्यमी रहताहे वह उद्दिष्टविनिवृत्त नामका श्रावक कहलाता है । 17 भगवज्जिनसेन ने आदिपुराण मे क्षुल्लक को एक शाटक का घारी लिखा है । तदनुसारही यहाँ कहा । तथा यहा उसके लिये उद्दिष्ट आहारादि का त्याग बताया है। उससे वह किसी के घर आमन्त्रित होकर जीमने नहीं जा सकता है क्योकि उनसे उद्दिष्ट भोजन का गहण होता है । अत वह भिक्षा से भोजन करता है । यह बात उद्दिष्टत्याग के लिखने से ही प्रगट हो जाती है । फिर भी चामुण्डराय ने उसके लिये एक और विशेषण 'भिक्षाशन' का प्रयोग किया है। उसका अभिपाय उनका कुन्दकुन्द और समन्तभद्र के मतानुसार अनेक घरो से भिक्षा मगाते का मातृम पडता है । अथवा सही पाठ "भक्षाशन हो । इस प्रतिमा का उद्दिष्टविरत यह नाम चारित्रपाहुड की गाथा १ मे भी लिखा है और जो यहा इस प्रतिमाधारी के लिये बैठ कर पात्र में आहार लेने को कहा है सो बैठकर भोजन कराने की मान्यता तो समतभद्र की भी हो सकती है क्योकि ११वी प्रतिमा मे जो विशेष आचरण थे वे उन्होने रत्नकरड श्रावकाचार लिख दिये । बाकी आचरण बैठकर जीमना आदि नीचे को प्रतिमाओ जैसे हो इस प्रतिमामे समझ लिये जावें । हाँ चामुण्डराय ने यहा इस प्रतिमा वाले के लिये हाथ में आहार करने की बात जरूर कुछ विशेष लिखी है । सम्भव है उस वक्त उनके सामने ऐसी ही प्रवृत्ति चल रही हो । या उसका प्रतिपादक आगम उन्हें उपलब्ध हो । किन्तु यहाँ पाणिपात्र मे आहार करने का अर्थ मुनि की तरह अजुली जोडकर करने का नही है । इसका निषेध सूत्र पाहुड मे ३ जगह किया है
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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