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________________ ‘क्या सभी जैनी भाई ... ] [ ५१६ "न हारयष्टि. परमेव दुर्लभा समतभद्रादिभवा च भारती ।" बहुमूल्य हार की लडी इतनी दुर्लभ नहीं है जितनी कि समतभद्रादि ऋषियो की वाणी दुर्लभ है। यह प्रतिष्ठा की बात है कि आज के कुछ जैनधन कुबेर साहित्य की ओर आकर्षित हुये है । वे किसी विशिष्ट साहित्यिक रचना पर प्रति वर्ष लाख २ रुपयो का पुरस्कार देने मे भी सकोच नही करते हैं । ये पुरस्कार अभी तक जैनेतरो को ही मिल पाये है। क्योकि उसका कार्यक्षेत्र सार्वजनिक है। उसका उद्देश्य प्रधानत जिनवाणी के ज्ञाता विद्वानो के प्रोत्साहन के लिये नहीं है । जिस जिनवाणी को कि हमारे आचार्यों ने अपार । मूल्य की बताई है। पं० आशाधरजो ने कहा है--- .! "वरमेकोऽप्युपक तो जनो नान्ये सहस्रश ।" - "एक भी जैन का उपकार करना जितना श्रेष्ठ है उतना अन्य हजारो का उपकार करना नही है ।" इस मर्म को समझने की जरूरत है। जैन साहित्य और उसके ज्ञाताओं के विना त्रिकाल में भी जैनधर्म का प्रकाश नहीं हो सकता है यह अटल सत्य है । एक कवि ने भी कहा है कि अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नही है । है वह मुर्दा देश, जहाँ साहित्य नहीं है । आज के श्रीमानो को जैन पडितो की जरूरत भी क्या है । इनके विना उनका कौनसा काम विगड रहा है ? कभी २ उनको पूजा प्रतिष्ठा या जैन विवाहादि के अवसर मे जैन
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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