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________________ ___५१८ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अर्थ-जिनवाणी और जिनवाणी के नाता पडित ये दो ही वास्तव में तीर्थ है । क्योकि ये दोनो ही इस जीवको ससार से तिरानेवाले है। जो उनको सेवा करते है वे ही सच्चे तीर्थ सेवक कहलाते हैं। मानाकि हमारे प्रतिभाशाली आचार्यों ने हमारे कल्याण के वास्ते उच्चकोटि के नास्त्र रच कर भगवान की वाणी को हमारे तक पहुँचाई। किन्तु उन शास्त्रो को जानने पढने वाले ये पदित लोग ही जब नही रहेंगे तो उनका व्याख्यान कौन करेगा ? शान्त्र हो सब बेकार हो जायेगे। इमलिये उक्त प्राचीन पद्य मे शास्न ही नहीं शास्त्री के ज्ञाताओ को भी तीर्थतुल्य बताया है वह यथार्थ है। उनमे कुछ भी अत्युक्ति नहीं है । मुमुक्षओ के लिये तो एक तरह से वे जैन पंडित ही चलते फिरते जगमतीर्थ हैं। इसमें कोई शक नहीं है। किन्तु ये बातें तो उन युग की थी, जब प्राणियो की वाछा ससार सागर से तिरने की रहा करती थी। उनके लिये तो सचमुच ही जैन पडित तीर्थतुल्य ही थे। किन्तु वर्तमान का युग तो अर्थ युग है। इस युग के मनुष्य समार से तिरना ही नही चाहते हैं उन्होंने तो अपना सबसे बडा कल्याण धन के संग्रह करने मे समझ रक्खा है। जिम परिग्रह को जैनाचार्योने पाप बता कर उसे त्यागने का उपदेश दिया उसी परिग्रह के सचय मे इन्होंने अपना उद्धार मान लिया है और कुछ तो धनमद से ऐसे उद्ध त होगये है किये जैन पडितो को तीर्थतुल्य तो क्या मानेंगे उन्हे तृणतुल्य भी नहीं मानते । ऐसी स्थिति मे इनसे यह आशा कभी नहीं की जा सकती कि ये जैन पडितों को तीर्थतुल्य मानेंगे। आचार्य श्री वीरनन्दि ने चद्रप्रभ काव्य मे लिखा है कि
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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