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________________ ५१४ ॥ [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ है। हमागकाम गिर्फ बाहार को पेट में रहेंचा देना होता है। जागे वह उदरस्थ आहार बगर हमारी प्रयत्न के अपने आप अनेक क्रियाये परता है । यथायोग जटगाग्नि के द्वारा यथायोग्य न, रक्त, माग, अग्यि. मज्जा, वीयर्यादि बन जाते है। यह मव काम जाहीरता है कि यह प्रत्यक्ष है । यह बात निम्न गाथा में नहीं - जह पुरिसेणाहारो गहियो । परिणमइ सो अणेयविहं। मसवसा गहिरादी भाये। उपरगिसंजुत्तो ॥१७॥ [समयमामुन] अर्थ-जिन प्रकार प्रभा के द्वारा गाया गया भोजन जठराग्नि के निमित्त से मास, चरवी, मधिरादि रूप परिणत हो जाता है उसी प्रकार यह जीव अपने भावी के द्वारा जिम कर्म पुजको ग्रहण करता है। उनका तीत्र, मंद मध्यन कपाय के अनुमार विविध न्य परिणमन होकर वह अनेक प्रकार से फल देता है। आये दिन अखवारी में पूर्व जन्म की घटनाय उपती रहती हैं जिनमे कर्मों की फल प्राप्ति का भी जिकर आ जाया करता है। ऐसी ही एक घटना का हाल हम यहाँ लिख देते हैं .. आयरलैंड मे एक बार वर्ष के बालक ने अपनी पूर्व जन्म की कथा लोगों के सामने अपने माता-पिता को बार-बार सुनाई। प्रथम तो माता-पिता का उस कथा को सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ और यह समझा कि बालक के मस्तक मे बिगाड़
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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