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________________ जैन कर्म सिद्धांत ] [ ५१३ आयु बाधी है नियमतः उसी गति मे जाना पड़ता है । उसमें रद्दोबदल नही हो सकता उपशम-कर्म को उदय मे आ सकने के अयोग्य कर देना उपशमकरण कहलाता है । निघत्ति - जिस कर्म की उदीरणा हो सकती हो किन्तु उदय और संक्रमण न हो सके उसको निधत्ति कहते हैं । निकाचना - जिस कर्म की उदीरणा, सक्रमण, उत्कर्षेण और अपकर्षण ये चारो ही अवस्थायें न हो सकें उसे निकाचनाकरण कहते है । और भी कर्म सिद्धांत की बहुत सी बाते हैं जो जैन कर्म साहित्य से जानी जा सकती हैं । यहाँ विस्तारभय से नहीं लिखा जाता । शंका-कर्म जड (ज्ञान शून्य ) होते है । उन्हे ऐसा बोध ही नही होता कि - अमुक जीवो को अमुक समय पर उनकी अमुक-अमुक करणी का अमुक-अमुक फल देना है, ऐसी सूरत मे जैनो का कर्म सिद्धात निरर्थक सा प्रतीत होता है । समाधान - जड पदार्थ भी अपनी शक्ति और स्वभाव के अनुसार ठीक समय पर व्यवस्थित काम करते देखे जाते है । समुचित मात्रा मे सर्दी गर्मी के मिलने पर बर्फ गिरना, बरसात होना, ठंडक - गर्मी का पडना, बादलो के आपस मे टकराने पर बिजली उत्पन्न होना, भूचाल -तूफान आना, ऋतुओ का पलटना आदि प्राय सभी काम जड़ पदार्थों के अपने-अपने स्वभावानुसार ठीक समय पर अपने आप हो जाया करते है । कोई भी ज्ञान - धारी वहा कुछ करने धरने नहीं पहुचता है । हम भोजन करते
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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