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________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ५११ काय के निमित्त से चार बाते होती है । प्रथम तुरन्त ही उनमे ज्ञानादिक के आवरण करने वगैरह का स्वभाव पड जाता है । दूसरे उनमे स्थिति पड जाती है कि ये अमुक समय तक जीव के साथ वन्धे रहेगे | तीसरे उनमे तीव्र या मन्द फल देने की शक्ति पड़ जाती है । चौथे वे नियत तादाद से ही जीव से सम्बद्ध होते हैं । उत्कर्षण- स्थिति और अनुभाग के वढने को उत्कर्षण कहते हैं । अपकर्षण- स्थिति और अनुभाग के घटने को अपकर्षण कहते है | बन्ध के बाद बन्धे हुए कर्मों मे ये दोनो उत्कर्षणअपकर्षण होते है । बुरे कर्मों का बन्ध करने के बाद यदि जीव अच्छे कर्म करता है तो उसके पहिले बाधे हुए बुरे कर्मों की स्थिति और फलदान शक्ति अच्छे भावो के प्रभाव से घट जाती है । इसे ही अपकर्षण कहते हैं और अगर बुरे कर्मों का बन्ध करके उसके भाव और भी अधिक कलुषित हो जाते है जिससे वह और भी अधिक बुरे काम करने पर उतारू हो जाता है तो बुरे भावो का असर पाकर पूर्व मे बाधे हुए कर्मों की स्थिति और फलदान शक्ति और भी अधिक बढ जाती है, इसे ही उत्कर्षण कहते है । इन दोनो के कारण ही कोई कर्म जल्दी फल देता है और कोई देर मे । तथा किसी कर्म का फल तीव्र होता है और किसी का मन्द - सत्ता - बधने के बाद तुरन्त ही कर्म अपना फल नही देता है। कुछ समय बाद उसका फल मिलना शुरू होता है । तब तक वह सत्ता में रहता है । जैसे शराब पीते ही तुरन्त
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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