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________________ ५१० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ (४) मोहनीय कर्म - मोहित कर देता है- मूढ बनाता है । इसके दो भेद है एक वह जो जीव को सच्चे मार्ग का भान नहीं होने देता, इसका नाम दर्शन - मोहनीय है । दूसरा वह जो सच्चे मार्ग का भान हो जाने पर भी उस पर चलने नही देता । इसे चारित्र मोहनीय कहते हैं । (५) आयु कर्म - यह किसी अमुक समय तक जीव को किसी एक शरीर मे रोके रखता है । इसके छिद जाने पर जीव की मृत्यु कही जाती है । (६) नाम कर्म - इसकी वजह से शरीर और उसके अगोपाग आदि की रचना होती है । चौरासी लाख योनियो मे जो जीव की अनन्त आकृतियाँ है उनका निर्माता यही कर्म है । (७) गोत्र कर्म - इसके कारण जीव ऊँच-नीच कुल का कहा जाता है । ( 5 ) अन्तराय कर्म - इसकी वजह से इच्छित वस्तु की प्राप्ति मे रुकावट पैदा होती है । जैन सिद्धांत मे कर्मों की १० मुख्य अवस्थायें या कर्मों में होने वाली दस मुख्य क्रियायें बतलाई है जिन्हें करण कहते हैं । उनके नाम-बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, सत्ता, उदय, उदीरणा, सक्रमण, उपशम, निर्धात्ति ओर निकाचना है । बंध - कर्म पुद्गलों का जीव के साथ सम्बन्ध होने को बन्ध कहते है | यह सबसे पहली दशा है । इसके बिना अन्य कोई अवस्था नहीं हो सकती । इसके चार भेद है - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेश बन्ध । जब जीव के साथ कर्म पुदुगलो का वध होता है तो उनमे जीव के योग और
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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