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________________ ४६८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ स्थूल शरीर अभी प्राप्त नही हआ। अन्तराल मे (विग्रह गति मे) उस जीव के अगर सूक्ष्म कार्मण शरीर भी नही माना जावेगा तो उसके गमन का अन्य क्या कारण होगा? विग्रहगति मे यदि आत्मा को बिल्कुल अशरीरी मान लिया जावे और अशरीरी होकर भी किसी नये शरीर मे जन्म लेना मान लिया जावे तब तो मुक्त जीवो का भी पुन शरीर ग्रहण करने का प्रसग आ उपस्थित होगा। कनों की सिद्धि के लिए चौथा हेतु यह है कि-जीवो के जो राग द्वेषादि भाव पैदा होते है वे भाव आत्मा के निज भाव तो हैं नही क्योकि उन्हे निज भाव मानने पर सिद्धो के भी उन्हे मानने पडेगे । परन्तु सिद्धो के वे है नही और यदि इन भावो को जीव के न मानकर कर्मो के माने तो कर्म पुद्गल है। अचेतन के द्वारा द्वषादि भावो का होना सम्भव नही है। जैसे उत्पन्न हई सतान न अकेली माता की है और न अकेले पिता की किन्तु दोनो ही के सयोग से उत्पन्न हुई मानी जानी चाहिए। जीव की इस वैभाविक परिणति से भी जीव के साथ होने वाला कर्म बध होता है । जैसे हल्दी और चूने के मेल से एक तीसरा ही विलक्षण लाल रग पैदा होता है । इस लाल रग मे न हल्दी का पता लगता है और न चूने का । किसी ने कहा है हरवी ने जरदी तजी चूना तज्यो सफेद । दोऊ मिल एकहि भये रह्यो न काहू भेद ॥ उसी तरह अरूपी जीव के साथ रूपी कर्म पुद्गलो का मेल होकर एक ऐसी तीसरी विलक्षण दशा पैदा हो जाती है जिसे हम जीव की वभाविक अवस्था के नाम से पुकारते है ।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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