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________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ४६५ कारण है और सर्प, कटक, विषादि प्रत्यक्ष दुख के कारण है । इन प्रत्यक्ष हेतुओ को छोड़कर सुख-दुख के परोक्ष कारण कर्मों को क्यों माना जावे | उत्तर पुष्पमाला आदि एकातत सभी जीवो को सुख के कारण नही होते है । शोकाकुलित जीवो को ये ही चीजे दुख की कारण भी देखी जाती हैं। इसी तरह विपादि भी सभी को दुख का कारण नही होते हैं । किन्ही - किन्ही रोगियो को विष का सेवन आरोग्यप्रद होकर सुख का कारण भी हो जाता है । खादी का बना मोटा चादर गरीब के वास्ते हर्ष का कारण होता है वही शालदुशाला ओढने वाले राजपुत्र के लिये विषाद का कारण बन जाता है । इस प्रकार समान सामग्री हो तो भी सबको समान सुख-दुख नही होते है । इस तरतमता को देखने से यही निश्चय होता है कि सुख-दुख के होने मे पुष्पकटकादि से भिन्न कोई अन्य ही अदृष्ट कारण है और वे अदृप्ट कारण कर्म ही हो सकते है | प्रश्न कोई आदमी बुरा काम राजा देता है । इस प्रत्यक्ष फलदान को परोक्ष कर्मो के द्वारा दिया जाना क्यो माना जावे ? t करता है उसका फल छोड कर उसका फ्ल उत्तर राजा अगर दण्ड देगा तो प्रगट पापो का देगा | गुप्त पापो का जिन्हे राजा जानता ही नहीं उनका फल कौन देगा ? और मानसिक पाप तो सदा ही अप्रगट है उनका फल भी जीव को कैसे मिलेगा ? तथा दया, दान, ध्यान आदि उत्तम कार्यों का फल भी जीव को कौन देगा ? एक मनुष्य अनेक हत्या करे तो राजा उसे प्राणदण्ड देता है, किन्तु इससे तो हत्या २
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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