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________________ ४८६ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ के अर्द्ध भाग को मगध भाषा और सस्कृत भाषा (2) मे प्रवर्ता देते हैं। न केवल भाषा ही बल्कि प्रीति भी वे सर्वजन समूह मे पैदा कर देते है। अर्थात सब जनता मागध देव के प्रताप से मागध भाषा मे बोलते है और प्रीतिकर देव के प्रताप से आपस मे मित्रता से रहते है। ये तो देव कृत अतिशय हये। - - - - - - इन उद्धरणो से यह प्रक्ट है कि भगवान की ध्वनि का सर्व भाषा रूप होना देवकृत नहीं है किन्तु दिव्यध्वनिका वह खास स्वभाव है। जिसे समतभद्र जैसे प्रभावशाली आचार्य भी स्वीकार करते है। जिसका उल्लेख इस लेख मे ऊपर किया जा चुका है। जैसे हम लोगो की अपेक्षा अहंत की ज्ञान आदि आतरिक शक्तिया अलौकिक होती हैं। तैसे ही उनकी वाह्य अवस्था में भी हम से विशेषता होजाती है। भीतरी शक्तिया परिपूर्ण प्रकट होजाने के कारण अहंत का प्रभाव इतना लोकोत्तर बन जाता है कि उसे देखकर साधारण लोग आश्चर्य करने लग जाते हैं। गहन बात को समझने के लिये बुद्धि भी गहन चाहिये। यही कारण है जो समतभद्रादि जैसे विशाल प्रतिमाधारी आचार्य अतिशयो को अक्षरश: मानते हैं किन्तु आज कल के ज्ञान लवविदग्ध पुरुष उनके मानने में हिचकिचाहट करते हैं। उन्हे समझना चाहिये कि योग की अचित्य महिमा है। फिर अर्हत तो परम योगी हैं उनकी लोकोत्तर विभूति मे तो सदेह दो कोई स्थान ही नही रहता। आदि पुराण मे भी कहा है कि-- महीयसाचित्या हि योगजाः शक्ति संपद. ॥४॥ [पर्व २४] - -
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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