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________________ भगवान की दिव्यध्वनि ] [ ४७६ 'अनक्षरात्मकस्तु द्विन्द्रियादि तियम् जीवेषु सर्वज्ञदिव्यध्वनी च' [वृहद्रव्य संग्रह पृष्ठ ४५] अर्थ-द्वीन्द्रीयादि तिर्यंच जीवो और सर्वज्ञ की दिव्यध्वनि मे अनक्षरात्मक भाषा होती है। अट्ठरस महाभासा खुल्लय, भासाहि सत्तसय संखा। अक्खर अणक्खरप्पय सण्णी, जीवाण सयल भासाउ॥१॥ रादासि भाषाणं तालु, वदन्तो कंठ वावारं । परिहरिय एक्क काल, भव्व जणाणं दकर भासो ॥२॥ [त्रिलोक प्रज्ञप्ति प्रथमोधिकार अर्थ-अठारह महा भाषाये और सात सौ क्षल्लक भाषायें ये सब अक्षर अनक्षरात्मक भाषायें सज्ञा जीवो की होती हैं । ये सब भाषाये तालुदन्त ओष्ठ कण्ठ के व्यापार बिना एक ही काल मे दिव्यध्वनि मे प्रकट होती है। कुछ लोगो का ऐसा खयाल है कि शास्त्रो मे भगवान् की वाणी को अनेक भाषात्मक लिखा है उसका मतलब यह है कि भगवान् जुदे-२ समय मे जुदी २ भाषाओ मे उपदेश देकर सभी भाषा विज्ञो को अपना वक्तव्य समझा देते है। ऐसे खयाल का त्रिलोक प्रज्ञप्ति मे "एक्क काल" शब्द देकर खडन कर दिया है। और यह जाहिर किया है कि भगवान की एक ही काल मे प्रकट हुई वाणी अनेक भाषा रूप हो जाती है। आदि पुराण पर्व २५ मे भी 'चित्र वाचा विचित्राणाम क्रम प्रभव प्रभो" ॥३२॥ पद मे प्रभु के विचित्र भाषाओ की उत्पत्ति एक ही साथ होना बताई है। .
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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