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________________ ४७८ ] ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ स्पष्टं तत्तदभीष्ट वस्तु, कथकं नि. शेषभाषात्मक । दूरासन्न समं सम निरूपम जन बच पातु न. ॥ २६ ॥ यत् सर्वात्महत न वर्ण, सहितं न स्पंदितौष्ठद्वयं । नो बाछा कलितं न दोष, मलिनं न श्वासरुद्ध क्रमम् । "विष्णुसेन कृत समवशरण स्तोत्र " # यहा वाणी को निरक्षरी बतलाते हुये उक्त पुराण द्वय से इतना और विशेष लिखा है कि वह वाणी दूर और नजदीक एकसी सुनाई देती है और उसके निकलते वक्त भगवान के हवा का रुकना और निकलना नही होता है और न श्वास का रुकना होता है । प. आशाधरजीने भी अपने अनगारधर्मामृत प्रथम अध्याय श्लोक २ की व्याख्या मे ध्वनि को निरक्षरी बतलाते हुये प्रमाण मे इसी "समवशरणस्तोत्र" का उक्त श्लोक दिया है । 'नष्टो वर्णात्मको ध्वनि.' ॥६॥ 'आप्तस्वरूप' नामक ग्रंथ # 'ध्वनिर्ध्वनत्यक्रम वर्ण रूपों ॥१८॥ बादिराज कृत 'ज्ञान लोचन स्तोत्र' # इन दोनो ग्रथो मे भी निरक्षरी ध्वनि लिखी है । कुछ लोग समझते हैं कि पुराण और स्तोत्र ग्रन्थों में इस प्रकार की बाते बढा कर लिखी गई हैं। ऐसे लोगो की मनस्तुष्ठि के लिये हम यहा अन्य ग्रन्थों के प्रमाण रख देते है #ये तीनो ग्रंथ 'सिद्धांतसारादि संग्रह' में छप चुके हैं ।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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