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________________ तिलोयपण्णत्ती - अनुवाद ''" ] [ ४६६ इनमे बिना द्विरुक्त संख्या के भी अर्थ वही होता है जो द्विरुक्ति के होने पर होता है । अगर आपके स्पष्टीकरण को ठीक माना जायेगा तो आपके ये सब गाथानुवाद गलत हो जायेंगे। क्योकि उसके अनुसार दो बाह्य कोनो मे से प्रत्येक मे दो (और आपके स्पष्टीकरण के मुताविक दो-दो ) रति कर के हिसाब से चार रतिकर होते है । इसके सिवाय अन्य अर्थ उस अनुवाद के शब्दो से फलित नही होता इस वास्ते वह अनुवाद गलत ही मानना चाहिए | उसकी शब्द योजना ऐसी होनी चाहिए थी कि जिससे दो ही रतिकर का अर्थ निकलता किन्तु ऐसा है नही । आपका स्पष्टीकरण विकल, भ्रात होने से गलत है अत. शुद्ध शब्द योजना इस प्रकार होनी चाहिए थी कि - 'वापियो के वाह्य दो कोनो मे से प्रत्येक मे (प्रति कोने मे ) एक-एक के हिसाब से दो रतिकर पर्वत हैं ।' आगे आप लिखते है " दूसरी आपत्ति उनके रंग के विषय मे प्रकट की गई है। सो यदि "दधिमुखो के सदृश सुवर्ण मय" इन शब्दो मे सुवर्णमय विशेषण को पृथक स्वतंत्र ही रखकर जैसा कि रहा भी है - दधिमुखो के सदृश इतना ही पृथक् विशेषण ले तो उसका अभिप्राय ठीक ग्रहण हो सकता है ।" समीक्षा - आपका यह लिखना भी ठीक नही क्योकि - " दधिमुखो के सदृश " इस वाक्य के आगे कॉमा' अथवा "और" शब्द लगा होता तो यह पृथक् विशेषण हो सकता था किन्तु इनका वहाँ अभाव है अत उक्त अनुवाद का यह कथन भी सदोष है ।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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