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________________ ४४४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ तथा पर्व ४० के श्लोक ८२ से ८४ मे लिखा है कि"क्रियाओ के प्रारम्भ मे उत्तम हिजो को रत्नत्रय के सकरूप से अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से उत्पन्न हुई तीन प्रकार की अग्नियाँ जलानी चाहिये। ये अग्नियाँ तीर्थंकर, गणधर और शेप के वतियो के निर्वाण महोत्सव मे पूजा का अग होकर पवित्र मानी गई है। गार्हपत्य आहवनीय, और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध ये तीनो महाग्नियाँ तीनो कुण्डो मे जलाने योग्य हैं ।" इस विषय मे उत्तर पुराण मे भी कुछ ज्ञातव्य अश हैं इसके लिए देखो ज्ञानपीठ प्रकाशन पृ० २५८ । बस इतना ही कथन महापुराण मे हमारे नजर मे आया है इस सक्षिप्त वर्णन से यह नही जाना जाता कि अग्नि कुण्डो का आकार, उनका प्रमाण क्या रहे इत्यादि बातो का खुलासा नही होता है । इस विषय को प्रतिष्ठा ग्रन्थो मे टटोला गया तो आशाधर कृत प्रतिष्ठापाठ मे तो केवल हवन का उल्लेख मात्र है विशेष कुछ लिखा नही है जैसा कि इस लेख मे ऊपर हम बता आये है | आशाधर के बाद कई प्रतिष्ठा ग्रन्थ बने उनमें से आखिरी 1 उसका स्थान आदिपुराण मे वाई और लिखा है तब इसका नाम दक्षिणाग्नि क्यो है ? शायद यह नाम हवन करने वाले के दक्षिण की ओर वह अग्नि होने के कारण से हो। और आदिपुराण मे उसका स्थान बाई ओर वहाँ स्थित प्रतिमा की अपेक्षा कहा हो आदिपुराण मे ऋषभदेव के निर्वाण महोत्सव के प्रकरण मे भी इस विषय का कथन आया है
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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