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________________ हवनकुण्ड और अग्नित्रय । [ ४४३ ____ आशाधर जी द्वारा रचित इस प्रकार के साहित्य में हवन के विषय का कोई प्रकरण हमारे देखने मे नही आया है। यह तो नहीं कह सकते कि उन्हें हवन क्रिया अभीष्ट ही नही थी क्योकि वे अपने प्रतिष्ठासारोद्धार के प्रथम अध्याय मे ऐसा लिखते है दातृसंघ नपादीनां, शांत्य स्नात्वा समाहिताः । शातिमंत्रजपं होम, कुर्य रिद्रा दिने दिने ॥१४०॥ अर्थ -दाता, सघ और राजा आदि की सुख शाति के लिये वे इन्द्र (याजक) स्नान करके निराकुल चित्त से शान्ति मत्रों के द्वारा प्रतिदिन जप होम किया करें। इस विषय का वर्णन आदि पुराण मे हमारे देखने मे निम्न प्रकार आया है। पर्व ३८ के श्लोक ७१ से ७३ तक मे लिखा है कि "जिन प्रतिमा के सामने तीन पूण्याग्नियो के साथ छत्रत्रय सहित चनत्रय स्थापन करने चाहिये। अहंत, गणधर और शेष केवलियो के निर्वाण समय जो तीन अग्नियाँ जलाई गई थी वे यहा सिद्ध प्रतिमा की वेदी के समीप सस्कारित करनी चाहिये अर्थात् मत्र पूर्वक जलानी चाहिये। उन अग्नियो मे महत्पूजा मे बचे पवित्र द्रव्यो से मन्त्र पूर्वक आहुतिये देनी चाहिये।". • आदिपुराण पर्व ४७ श्लोक ३४७-३४८ मे तीर्थंकर कुण्ड के दाहिनी ओर गणधर कुण्ड व बाई गोर सामान्य केवलिकुण्ड की स्थापना लिखी है सामान्य केवलियो की अग्नि का नाम दक्षिणाग्नि है
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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