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________________ ४४० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ १२१० मे बनाई है। इन सब उल्लेखो के आधार पर जयसेन का समय वि० स० १२०० करीब का सिद्ध होता है और ब्रह्मदेव का इनसे वाद का | wha इतिहास का वही खोजी तथ्य तक पहुँच सकता है जो तटस्थ होकर पक्षपात और आग्रह को न रखता हुआ समय २ पर मिलने वाले साधक-बाधक प्रमाणीके अनुसार अपने विचारो को बदलता रहता हो । अन्त मे माननीय सम्पादक जी सा० से हमारा सविनय " अनुरोध है कि इस विषय मे आपने जो अपने विचार द्रव्यसंग्रह की प्रस्तावना मे व्यक्त किये है उन पर शान्ति से पुनः मनन करने का कष्ट करे । प्रस्तावना पृ० ४८ मे "आन इष्ट को ध्यान अयोगि, अपने चलन शुभ जोगि " पद्य का अर्थ - " इसे उन्होंने अपना इष्ट और शुभोदय समझा " ऐसा दिया है किन्तु सही अर्थ इस प्रकार होना चाहिए - अन्य इष्ट का ध्यान विचार अयोग्य है अपने इप्ट के यहाँ चलना ही शुभ और योग्य है । 'लघुद्रव्य संग्रह' मे मुद्रण की गलतियो के अलावा भी कुछ पाठ अशुद्ध है जिनके शुद्ध रूप इस प्रकार है : अशुद्ध पृष्ठ ६० सखादासखादा शुद्ध - सखासखाणता अशुद्ध - पृष्ठ ६२ ठाण साहूण शुद्ध- ताण साहूण अशुद्ध- पृष्ठ ६२ गणिणा शुद्ध - मुणिणा
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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