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________________ द्रव्यसंग्रह का कर्त्ता कौन ? ] [ ४३६ मताश्रित शिष्यो को समझाया है और फिर ११वी पक्ति मे "इतिमतार्थो ज्ञातव्य " लिखकर इस प्रकरण को समाप्त किया है । इसी विषय का ब्रह्मदेव ने द्रव्यसंग्रह की गाथा ३ की टीका मे वर्णन करते हुए सिर्फ वही "वच्छक्खर" गाथा उद्धृत करके और केवल चार्वाक मतानुसारी शिष्य को ही समझाने का दो एक लाइन मे कथन करके बाकी कथन जयसेन की टीका वाला छोड़ दिया है इससे यही ध्वनित होता है कि ब्रह्मदेव ने जयसेन का अनुसरण किया है । जब जयसेन ने यहा १० लाइने अपनी बुद्धि से गद्य मे बनाकर लिखी हैं तो उसमे की एक दो लाइने ही वे ब्रह्मदेव की क्यो लेगे ? उन्हे क्या वे नही बना सकते थे ? इस ऊहापोह से ब्रह्मदेव जयमेन से उत्तरकालवर्ती सिद्ध होते हैं । ऐसी हालत मे जयसेन ने पचास्तिकाय की टीका पृ० ६ में द्रव्य संग्रह की रचना मे सोमश्रेष्ठी का जो निमित्त लिखा है, वह जानकारी जयसेन को ब्रह्मदेव कृत द्रव्य संग्रह की टीका से मिली हो ऐसा नही समझना चाहिये । किन्तु जयसेन को यह जानकारी ब्रह्मदेव से पहिले ही किसी अन्य स्रोत से मिली हुई थी । प्रवचनसार अधिकार २ की गाथा ४६ की जयसेन कृत टीका के वाक्य पद्मप्रभ मलधरी ने नियमसार गाथा ३२ की टीका मे उद्धृत किये है । अत जयसेन पद्मप्रभ से पहिले हुये है । पद्मप्रभ वि० स० १३वी सदी के पूर्वार्द्ध मे हुए है । और जयसेन ने पचास्तिकाय गाथा २ की टीका मे वीरनन्दी कृत आचारसार का चौथे अध्याय का एक पद्य " येनाज्ञानतम उद्धृत किया है । अत ये जयसेन वीरनन्दि के बाद हये है । वीरनन्दि ने आचारसार की स्वोपज्ञ कनड़ी टीका वि० स० 71
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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