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________________ ३६२ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २ होता है वह फल कलियुग मे अर्हन्त भक्तमुनि को आहार देने से होता है । अब जरा मनुस्मृति मे भी लिखा देखिये "दर्शयन् वम वीराणां सुरासुर नमस्कृत. । नीतित्रितयकर्ता यो युगादौ प्रथमो जिन." ॥ अर्थ-युग के आदि मे होनेवाले जो प्रथम जिनेन्द्र हैं वे तीन नीति के कर्ता, वीरो के मार्ग दर्शक, और सुरासुरो से पूजित हैं। इत्यादि कितने ही प्रमाण है जो ग्रन्थ बढजाने के भय से छोडे जाते है जो धर्म इतना प्रशसित, इतना मान्य, और इतना अधिक उपयोगी है उसके लिये यो लिखना कि"हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमंदिरम् ।" । "हस्ति से ताडित होकर भी अपनी रक्षार्थ जिनमदिर मे न जाय।" लेखक के गम्भीर कलुषाशय को प्रकट करता है । जैसे उसने क्रोध के आवेश मे लिखा हो। इसलिये उसकी कदर भी उतनी ही होनी चाहिये जितनी एक क्रोधी की जबान की होती है। उसके ऐसा लिखने से जैनधर्म की हानि हुई हो चाहे न हुई हो, किन्तु उसने एक शातिदायी धर्म के ससर्ग से अलग रखकर अपने अनुयायियो को निश्चय ही गहरी हानि पहुचाई है। प्रध्वस्तघातिकर्माण केवलज्ञानभास्करा । कुर्वतु जगत शांति वृषभाद्या जिनेश्वरा ॥ ओ शांतिः ! शाति !! शाति. !! .
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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