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________________ ३६० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ से ही उसके महत्व का यत्रतन कथन जैनेतर ग्रन्थकारो को भी करना पडा है । सो ठीक ही है । क्यो कि ' नहि कस्तूरि कामोद शपथेन निवार्यते" (कस्तूरी की खुशबू शपथ (सौगन्ध ) खाने से नही रोकी जाती ) । ऋग्वेद अष्टक २ अ० ७ वर्ग १७ मे अर्हत को केवल ज्ञानी अतुल्य वलशाली और सव की रक्षा करनेवाला लिखा है ।" " यजुर्वेद अध्याय ६ मत्र २५ मे २२ वे तीर्थंकर नेमिनाथ को आहुति प्रदान की है। साथ ही उन्हे आत्मस्वरूप के प्रकट कर्त्ता और यथार्थ वक्ता कहा है ।" यजुर्वेद अध्याय १६ मंत्र १४ मे लिखा है कि "अतिथिरूप पूज्य महावीर जिनेन्द्र की उपासना करो, जिससे त्रिविध अज्ञान और मद की उत्पत्ति न हो ।" शिव पुराण मे लिखा है कि "अडसठ ६८ तीर्थो की यात्रा का जो फल है, वह आदिनाथ ( ऋषभ देव ) के स्मरण से होजाता है" यथा अष्टषष्टिषु तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत् । आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत् ॥ योगवाशिष्ठ के वैराग्य प्रकरण मे रामचन्द्रजी ने जिनेन्द्र के सदृश शाति प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की है । यथा "माइ रामो न मे वांछा भावेषुच न मे मनः । शांतिमास्यातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनोयथा ॥ [ अध्याय १५ श्लोक २८ ] दक्षिणामूर्तिसहस्रनाम मे कहा है कि " शिवोवाच 17
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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