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________________ ३६८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ बात बिलकुल ठीक है जो आशा और तृष्णा का दास है वह किसका गुलाम नहीं है। वास्तव मे जिस-जिस आत्मा में काम क्रोध, लोभ, मोह मद मत्सर आदि भाव जितनी ही जितनी मात्रा मे अधिक है उसे उतना ही उतना ज्यादह दुखी समझना चाहिए । और जिसमे ऐसे भावो की जितनी ही कमी है उसे उतना ही सुखी मानना चाहिये। "नास्ति रागसमं दुखं नास्ति त्यागसमं सुखम्। राग के समान दुख और त्याग के समान सुख नहीं है। आपदा कथित. पंथाः इन्द्रियाणामसंयमः ।.. तज्जयः संपदां मार्गो येनेष्टं तेन गम्यताम् ॥ अर्थ-आपदाओ-दुःखों का मार्ग इन्द्रियो का असयम है। और उन इन्द्रियो का जीतना उन्हे अपने वश में रखना यह सम्पदाओ का-सुखो का मार्ग है। जो तुम्हे इष्ट हो उसी परे चलिये। दुख चाहो तो इन्द्रियो के अधीन बने रहो और सुख चाहो तो उनपर विजय प्राप्त करो। "येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति" - जितने अशो मे राग द्वषादि भावो का सद्भाव है उतने ही अशो मे आत्मा का बन्धन मानना चाहिए। जब यह तय होचुका कि दरअसल मे जीव को दुख पहुँचाने वाले उसी के कामक्रोधादि भाव हैं, तब यदि कोई दुख से बचना चाहे तो उसका मुख्य कर्तव्य है कि वह ऐसा उपाय सोचे कि जिससे कामक्रोधादि नष्ट हो जायँ, ऐसे धर्म की शरण मे जाय, जो इन कुभावो के मेटने की तजवीज बताता हो, तभी उसकी आत्मा को शाति मिल सकती है।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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