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________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३६७ से श्रेष्ठ है उसके बाबत जो बातें नीचे लिखी जायेगी उन्हे एक तरह से सब धर्मों की कसोटी कहना चाहिए, जिसपर कसकर देखने से सब धर्मों मे से एक असली धर्म का पृथक्करण किया नाकर एकमात्र उसे ही अपने जीवन में उतारा जाय । सबसे पहले विचार इस बात का होता है कि मनुष्य को किसी धर्म के धारण करने की क्यो आवश्यकता होती है ? इसलिए कि वह उसके द्वारा अपने दु खो से छुटकारा चाहता है। लेकिन इसको दुःख क्या है ? क्या विवाह न होना सतान न होना धन ऐश्वर्यादि का न मिलना इत्यादि ? मान लिया जाय कि ये सब मिल जाये तो क्या वह पूर्ण सुखी हो जायगा? कदापि नहीं। बड़े-बड़े राजाओ और बादशाहो के क्या इनकी कमी थी, फिर भी वे यथार्थ मे सुखी न हो सके। किसी ने ठीक ही कहा है कि राराः परिभवकारा बन्धुजनो बधन विष विषया । कोऽयं जनस्य मोहो ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ।। अर्थ स्त्रियाँ तिरस्कार की करनेवाली, परिवार के मनुष्य बन्धन के तुल्य और इन्द्रियो के बिषय विष रूप है । इतने पर भी मनुष्य के मोह को देखो जो इन शत्रुओ से भी मित्रता की आशा रखता है। संतोषामृततप्ताना यत्सुखं शांतचेतसाम् । कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ।। अर्थ-जो सुख सतोषरूप अमृत से तृप्त होनेवाले शातचित्त पुरुषो मे है। वह इधर-उधर दौड़नेवाले धनलोलुपियो को कहाँ से मिल सकता है।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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